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बम्बई से जम्मू ( उत्तरी पंजाब ) तक भ्रमण किया
और वह भी पैदल ही । प्रत्येक स्थान पर आपने व्याख्यान देकर जैनों को जगाया और उनके हृदयपटल पर अपनी स्मृतिकी छाप लगादी। इन सब बातों का अनुसंधान करना कोई बच्चों का खेल नहीं था ।* इस के लिये उपाध्यायजी महाराज के शिष्यों मुनिश्री समुद्रविजयजी तथा स्व. मुनिश्री सागरविजयजीने जो परिश्रम किया है वह अवर्णनीय है । सच पूछिये तो इस पुस्तक के अस्तित्व का श्रेय भी उन्हीं मुनि महाराजों को है। सामग्री जुट जाने पर भी पुस्तक का लिखना आसान न था, यह तो श्रीमान् पंडित हंसराजजी जैसे सिद्धहस्त लेखक का ही काम था। जिस परिश्रम
और प्रेम से उन्होंने यह कार्य किया है उसके लिये हम उनके चिरवाधित रहेंगे।
प्रकाशन का कार्य भी कम कठिन नहीं था। महासभा के कोष की अपर्याप्ति के कारण न जाने और कितना विलंब हो जाता । परंतु मुनिश्री समुद्रविजयजी के उपदेश से निम्न लिखित महानुभावोंने हमारी सहायता करके हमें अनुगृहीत किया है अतः वे हमारे हार्दिक धन्यवाद के पात्र हैं:(लिस्ट साथ में हैं)
नोट-जीरा निवासी सनातन धर्मियोंने जो मानपत्र अर्पण किया था वह तलाश करने पर भी नहीं मिल सका । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com