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दो शब्द।
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प्रिय पाठकवृन्द ! श्री उपाध्यायजी महाराज को हमसे सदैव के लिये बिछड़े हुये आज १० वर्ष से भी अधिक हो गये हैं। आज उन की यह जीवन-कथा आप के समक्ष उपस्थित करते हुये हम अपने आप को किंचिन्मात्र कृतकृत्य मानते हैं। इस जैन समाज पर किये गये उनके उपकारों की गणना करना सहल नहीं। तथापि यह महासभा तो सर्वथा उनही की असीम कृपा का फल है-इसे उन्होने ही जन्म दिया था। इस नाते से हमारा परम कर्त्तव्य था कि इस पुस्तक को उनकी पंचत्व प्राप्ति के थोड़े ही समय के अनंतर प्रकाशित कर देते । हमें खेद है कि निरंतर प्रयत्न करने पर भी हम ऐसा न कर सके। इस कार्य के संपादन में हमें बहुत सी कठिनाइयों का सामना करना पड़ा।
अन्य महापुरुषों की भांति एक जैन साधु का कार्यक्षेत्र सीमित अथवा परिमित नहीं होता। वे चातुर्मास के अतिरिक्त और कभी भी एक स्थान पर बहुत समय तक नहीं ठहरते । अपने कार्य की डायरी रखने का उनमें रिवाज नहीं अतः उनके जीवन संबंधी घटनाओं को जानने के लिये बड़ा परिश्रम करना पड़ता है । यही बात
हमारे चरित्रनायक पर भी चरितार्थ होती है । आपने Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com