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( १५१ ) -: उपाध्याय पदवी का लाभ:
"गुणग्रामाभिसंवादि, नामापि हि महात्मनाम् । यथा सुवर्णश्रीखंडरत्नाकरसुधाकराः" ॥१॥
पंजाब का श्री जैन संघ वर्षोंसे कोशिश कर रहा था कि समाज नौका के कर्णधार आचार्यरूप से प्रातः स्मरणीय पूज्यपाद मुनिश्री वल्लभविजयजी बने । उसने इसके लिये आप श्रीके चरणों में अनेकवार प्रार्थना की, परन्तु आपश्रीने स्वीकार नहीं की। ऐसा होनेपर भी उसने अपने धैर्यको नहीं छोड़ा; जैन श्रीसंघ लगातार कोशिश करता रहा आखिरकार लाहौर में उसका भाग्य जागा । क्योंकि किसीने ठीक ही कहा है “ पुण्यैर्विना नोदयः”। श्री १०८ प्रवर्तक श्री कान्तिविजयजी महाराज और शान्तमूर्ति श्री १०८ श्री हंसविजयजी महाराज तथा स्वामी श्री १०८ सुमतिविजयजी महाराज आदि वृद्ध मुनिराजाओं के अनुरोध और भारतवर्ष के श्रीसंघ के मुख्य २ आगे वानोंकी विनीत अभ्यर्थनासे आपश्रीने आचार्यपदको विभूषित करनेकी अनुमति देदी ।
यह सुनते ही पंजाब श्रीसंघके हर्षका कुछ पारावार न रहा ! उसने बड़े उत्साह और समारोहसे वि. सं. १९८१ मार्गशीर्ष शुक्ला पंचमी के रोज प्रातःकाल ठीक साढ़े Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com