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वसन्तामलजी किस आशासे आयेथे और वह आशा किस निराशा के रूपमें परिणत हुई; परन्तु सच्चा वैराग्य वहीं है जो मनुष्य को इस दशा में पहुँचा देता हो;
तुझे देखें तो फिर औरों को किन आखोंसे हम देखें, यह आँखें फूट जायें गर्चि इन आंखोंसे हम देखें ।
वसन्तामलजी वहांसे चले तो गये परन्तु मनमें वही लगन लगी हुईथी। आप फिर आये और आचार्यजी के सामने वही प्रार्थना की। आपने वही जवाब दिया कि तुम्हारा मन स्थिर नहीं है इसलिये हमारे यहां आपको स्थान नहीं है। यहां तो स्थान उन लोगों को है जिनके दिलमें तीव्र वैराग्य की अग्नि धधक रही हो । इस प्रकार कई दफा वसन्तामलजी आचार्यश्री के चरणों में आये और आचार्यश्रीने वही उत्तर दिया । आखिर “ इश्के मजाजीसे इश्के हकीकी हासिल होता है ” अर्थात् तीव्र वैराग्यभावना उदित हुई आप पुनः आचार्यश्री के चरणों में आये और अपनी हृदयगत भावनाको प्रकट करते हुए प्रतिज्ञा सुनाने लगे कि गुरुदेव ?
"जिन अर्गन होते चाहचली खर कूकनकी धिक्कार उसे, जिन खायके अमृत वॉछा रही लिद पशुअनकी धिक्कार उसे, जिन पायके राजको इच्छा रही चक्की चाटनकी धिक्कार उसे, जिन पापके ज्ञानको वाँछा रही जगविषयन की धिक्कार उसे"
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