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दीक्षा संस्कार । भो ! भो ! देवाणुपिया ! भीमे भवकानने परिभमंता ॥ दुह दावानल तत्ता, जइ वंछह सासयं ठाणं ॥१॥ ता चारित्त नरेसर सरणं ! पविसेह सासयसुहट्ठा । चिर परिचियपि मुत्तूणं । कम्म परिणाम निवसेवं ॥२॥
भावार्थ-हे देवताओं के प्यारे भयंकर संसाररूपी वनमें परिभ्रमण करते हुवे दुःखरूपी दावानलसे जलते हुवे, यदि शाश्वता मोक्ष; स्थानको इच्छतें हों, तो, आनादिकालका परिचित कर्म राजा की, सेवा को त्याग करके; शाश्वता मोक्ष सुखके लिए, चारित्र रूपी महाराजा की, शरण को स्वीकार करो"
आचार्यश्रीने अपने श्रीमुखसे फरमाया कि तुम जहाँतक इस परिचित देशमें बैठे हों वहाँतक तुम्हारा अन्तःकरण स्थिर नहीं होगा ॥ " कुसंगासंग दोषेण, साधवो यान्ति विक्रियाम् ”
शायद है; पर्व परिचित व्यक्तियोंका परिचय हो जानेसे तुम्हारे मनपर कुछ खराब असर पड़जाय; इसलिए हमारा अभिप्राय यह है कि तुम गुजरात देशमें चले जाओ। वहांशत्रुजय, गिरनार आदि उत्तमोत्तम तीर्थों की यात्रा करनेसे तुम्हारा मन अवश्य स्थिर हो जायगा । साथही साथ हमारे
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