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( १०१ )
॥ शरारतबाजी॥ " तुलसी संत सुअम्बतरु, फूलिफले पर हेत ।
इतते ये पाहन हनें, उतते वे फल देत ॥ "
संसारमें सब लोग एकही स्वभाव अथवा प्रकृतिके नहीं होते । जैसे कहा भी है:
" दोषहिंको उमहै गहै, गुण न गहै खललोक ।
पिये रुधिर पय ना पिये लगी पयोधर जोंक ॥"
चतुर्मासमें आपके व्याख्यानोंसे वहांकी जनताको बड़ा लाभ पहुंचा । प्रतिदिन सैंकड़ों स्त्री-पुरुष आपके उपदेशामृतको पान करके आनन्द उठाते थे। परन्तु विघ्नसंतोषी लोग भी बीचमें ही होते हैं । किसी मनचले व्यक्तिने वहांके थानेदारको खबर दी कि सनखतरेमें एक जैन साधु आये हुए हैं, सैकड़ों स्त्री-पुरुष उनके व्याख्यानमें आते हैं, उनका व्याख्यान निरा पोलीटिकल होता है । आपको अवश्य इधर ध्यान देना चाहिये, इत्यादि ।
इस रिपोर्ट के पहुंचते ही वहांसे एक गुप्तचर ( खुफिया पुलिस का आदमी ) भेजा गया । वह मनुष्य लगातार आठ दिन तक आपके व्याख्यान में आता रहा परन्तु यहांपर तो केवल धार्मिक उपदेश था । धर्मका आचरण करने और परस्पर प्रेमभाव रखने एवं प्रत्येकजीव को अपनी आत्माके समान समझने आदि पुण्यकर्मीका ही प्रतिदिन उपदेश होताथा।
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