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( १९९). के प्रिय स्नेही थे, उनसे यह निश्चय हो रहा था कि आप . गुजरानवाला उपाध्यायजी महाराज को तार करा दें कि आपके निर्धारित कार्य में मैं आजन्म सहायक रहूंगा और गुरुकुल पंजाब को किसी तरह शकिस्त नहीं पहुंचने दूंगा । इस सम्बन्ध में आप बिल्कुल निश्चित रहें । यह सब इस लिये करना पड़ा था कि शास्त्रों में फरमाया है किः--
पहले ज्ञान और पीछे अहिंसा (प्रथमं जानाति, पश्चात्प्रयतते ) पंजाब में शिक्षा बहुत कम थी । उपाध्यायजी महाराज अशिक्षा के भूतको भगाने के लिए देशकी बलिवेदी पर बलिदान होने को सुसज्जित थे।
उनके मनमें यह था कि इस देशकी घोर अज्ञानता को हटाने के लिए मेरे बलिदान की खास आवश्यकता है । ये गुरु तेगबहादुर के समान बहादुर थे। " वासांसि जीर्णानि यथा विहाय" के सिद्धान्त से उनकी आत्मा को मरनेका भय बिल्कुल न था। एक बात और भी ध्यानमें रखने की है कि जब मैं होशियारपुर ( पंजाब ) से बम्बई की ओर रवाना हो रहा था, तव जण्डियाला गुरु से श्री उपाध्यायजी महाराज का आग्रहपूर्ण फरमान था “ मेरे मिले वगैर आप जालंधर से आगे न बढ़ें।" उनकी आज्ञा को मान देकर मैं जालंधर में ठहर गया। श्री उपाध्यायजी जण्डियाला से विहार कर जालंधर आ पहुंचे। हम दोनों भाइयोंने दो दिन वहाँ रह कर:
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