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( १५) अपना कार्य सिद्ध करो। तुम्हारे मनोरथकी सफलता हो ! बस और क्या चाहियेथा, आनंद के बाजे बजने लगे। संघमें अपूर्व हर्ष छागया । एकतर्फ अनेक मुनियों के समुदाय सहित तपस्वीजी श्री शुभविजयजी महाराजका पदापर्ण, दूसरी तर्फ दीक्षा महोत्सव । करीबन २०-२५ दिन तक उत्सवकी धूम धाम होती रही और वैशाख शुक्ला १० [विक्रम संवत् १९६१] को इन्हीं उक्त मुनि महाराजोंके हाथसे श्री गुरुवर्य वल्लभविजयजी महाराज के नामपर बसन्तामलजीका दीक्षा संस्कार संपन्न हुआ। यहां इतना कहदेना अप्रासंगिक नहीं होगा कि आचार्य महाराजने मुनि श्री ललितविजयजीको लिखाथा कि इन्हें आप अपनी तर्फसे दीक्षा दे देना और अपना शिष्य बना लेना; परन्तु मुनिश्री ललितविजयजीने ऐसा करना उचित नहीं समझा क्योंकि आप जानतेथे कि जो गुरु महाराजका है वह मेराही है मैं भी तो उन्हीं का ही हूँ और दूसरी बात यह कि मुनि ललित विजयजी की यह भावनाथी कि गुरुमहाराज के करकमलोंमें तथा नाममें लब्धि है अतः उन्होंने अपने गुरुमहाराजके ही नामसे वासक्षेप डाला । और वसंतामलजीका नाम “ सोहन विजयजी" रखा गया। उसी दिनसे बसन्तामलजी " मुनिश्री सोहनविजयजी " इस नामसे अलंकृत हुए।
इनका इस समयका दीक्षा संस्कार भी बड़े ही ठाटवाटसे हुआ और वहाँ के लोग आजतक भी उस दीक्षा संस्कार
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