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( १७९ ) साहिब तथा उपाध्यायजी महाराज १००८ श्रीवीरविजयजी महाराज आदि मुनिराज विराजमान थे, उन सबका तथा सकल श्रीसंघका ख्याल हमारे परम गुरुवर्य श्रीमद्विजयवल्लभसूरिजी महाराजकी तरफ था, क्योंकि सबके हृदय में यही था कि श्री वल्लभविजयजी महाराजके आये विना हमारी जीत न होगी । इस समय आप श्रीमद्विजयवल्लभसूरिजी गुजरांवाले से करीबन ४००-५०० मीलकी दूरीपर खींवाई नामक ग्राममे विराजमान थे, गुजरांवालेसे लाला जगन्नाथजी पूर्वोक्त महात्माओंका तथा सकल श्रीसंघ का पत्र लेकर आपके पास पहुंचे। वंदना नमस्कार करके आपश्रीजी के करकमलोंमें पत्र देकर जुबानी कितना ही हाल कह सुनाया । परम गुरुदेव श्रीमद्विजयवल्लभसूरिजी महाराजने पत्रको पढ़ते ही इन दोनों ग्रंथरत्नों को सत्य प्रमाणित करने और जैन धर्मकी प्रभावना, शासनोन्नति करने के लिए झट विहार करने की तैयारी की।
उपाध्यायजी श्री सोहनविजयजी महाराज एकदम तैयार हो कर श्री गुरुदेव के साथ चल पड़े।
जेठका महीना था। पंजाब जैसे देशकी कड़ाकेकी गरमी, मानों आकाशमें से अंगारे बरस रहे हों । केवल धर्मके लिए, गुरुभक्ति के लिए क्षुधा, पिपासादि कष्टोंकी परवाह न करते हुए पंद्रह बीस मील, कभी इससे भी
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