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( १८९) परिशिष्ट ७।
सम्बन्ध परिचय । (लेखकः-उपाध्याय श्री ललितविजयजी महाराज)
मेरे प्रिय बन्धु ! उपाध्याय श्री सोहनविजयजी स्वभावतः बड़े विनीत एवं भद्रिक थे, इसीवास्ते पूर्व सम्प्रदाय (स्थानकवासी साधुपना ) त्यागने के बाद भी उनको दोबार फिर उनके प्रतिबन्ध में फसना पड़ा। जब उनको पूर्णरूपसे यह मालूम होगया कि “ नहि सत्यात्परो धर्मो, नानृतात्पातकं परम् । नहि सत्यात् परं ज्ञानं, तस्मात् सत्यं समाचरेत् " ॥ ____तब उन्होंने आकर पूज्यपाद आचार्य महाराजश्री १००८ श्रीमद्विजयवल्लभसूरीश्वरजी की शरण ली । गुरु महाराजने यह समझ कर कि शायद इनका मन फिरसे परिवर्तित न हो जाय, उन्हें मेरे पास भेज दिया। मैंउसवक्त गुजरात देशान्तर्गत भोयणी तीर्थपर परम पूज्य परम गुरु श्री हंसविजयजी महा राज के साथ तारनतरन जहाज प्रभु श्री मल्लिनाथस्वामी की सेवामें रहकर ज्ञानाभ्यास कर रहा था। प्रियबन्धु आये हंसते हंसते मेरे सामने आकर खड़े हुए। मैंने पूछा “ भाई तुम कौन हो ? कहाँसे आए ?"
आपने मुस्कराते हुए उत्तर दिया, “ मैं पंजाबसे आया हूं"। पहले प्रश्न का कि तुम कौन हो कोई उत्तर नहीं दिया। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com