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(१४४) वहाँपर बैठे हुए सबलोग बोल उठे कि अवश्य लगेगी। जब ऐसा है तो फिर बाकी क्या रह गया । यह सुनकर भी उक्त लालाजीने अपना आग्रह न छोड़ा इसपर उपस्थित लोगों को बड़ा क्षोभ हुआ, और बोलते हुए चलदिये ।
" सचाई छिप नहीं सकती बनावट के अमूलोंसे, खुशबू आ नहीं सकती कभी कागज़ के फूलोंसे"॥
रोपड़ होते हुए अम्बालेमें ॥ बलाचौरसे विहार करके आप रोपड़ पधारे । आपका प्रवेश बड़ी ही शानसे हुआ। रोपड़में आठ दस घर जैनोंके हैं और एक जिनमन्दिर है । यहांपर आप १५ दिनतक ठहरे । धर्मोपदेश बराबर होता रहा; लोग भी काफी संख्यामें आते रहे । यहांपर लाला दयारामजी और ला० कपूरचन्दजी, इन दो सगे भाइयोंमें बहुत रोज़से तनाज़ा चला आता था। आपके सदुपदेश और अम्बाला निवासी ला० गंगारामजी तथा ला० जगतुमलजीकी कोशिशसे वह बिलकुल मिट गया । जहाँ एक दूसरेका विरोधी था वहां अब एक दूसरेसे प्रेम करने लगा । इसके अलावा कपूरचन्दजीने अपनी दुकानके ऊपरका चौबारा उपाश्रय बनाने के लिये दे दिया। और श्री मन्दिरजी की प्रतिष्ठाके लिये प्रबन्ध किया गया ।
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