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( १४३ ) किया। वहां से आप बलाचौर पधारे। वहांपर सिर्फ स्थानिक वासी जैनोंके ही ३०-४० घर हैं। परन्तु उन लोगोंका प्रेम अच्छा है । यहांपर आप दो रोज़ ठहरे। दोनों रोज़ बराबर उपदेश हुआ; लोगोंने लाभ उठाया।
यहांपर रात्रिके समय मूर्तिपूजाके विषयमें खूब चर्चा हो रही थी। लोगोंने इस चर्चा में खब भाग लिया। आपने शास्त्रीय प्रमाणों और अकाट्य युक्तियों से मूर्तिपूजा और उसकी आवश्यकता, तथा उसकी स्वाभाविकता को उपस्थित लोगोंके हृदयोंपर बड़ी खूबीसे अङ्कित कर दिया ।
आपकी युक्तियोंको सुनकर लोग अफा २ कर उठे । परन्तु लाला सीतारामजी स्थानिकवासी( जो आपके साथ प्रश्नोत्तर कर रहे थे )ने अपने आग्रहको नहीं छोड़ा । उनके इस कदाग्रह को देख कर आपने फरमाया कि लालाजी ! आप इतना हठ क्यों कर रहे हो। मूर्तिपूजासे कौन बच सकता है ? आप दूर न जाइये ! आपके घरोंमें ही आपके पूज्य साधु सोहनलालजी, लालचन्दजी, उदयचन्दजी
और आत्मारामजी आदिके फोटो बड़ी सजधज से लगे हुए हैं। मैं पूछता हूं कि उनको आपने वहां किसलिये लगाया ? पूज्यभाव से या और किसी ख़याल से ? । यदि कोई पुरुष आपके सामने उन मूर्तियोंको उतारकर उनका निरादर करने लगे तो आपके दिलमें कोई चोट लगेगी या नहीं। इसपर
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