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व्याख्याना
(१४२) ख्यान दिया । आप जानते हैं कि हम लोग मूर्तिपूजा के कट्टर विरोधी हैं । परन्तु आपकी व्याख्यान शैली ही ऐसी है जो कि सबको प्रिय लगती है। हम लोगोंने आपके सभी व्याख्यान अच्छी तरहसे सुने है। सच पूछे तो हम लोगों को बड़ाही आनन्द आया । यहांपर बड़े २ धर्मोपदेशक आते हैं और जोरशोर से अपने मतका प्रचार करते हैं, तथा दूसरों को बुरा भला कहने में वे ज़राभी संकोच नहीं करते; परन्तु आपमें हमने जो विशेषता देखी, वह सबसे विलक्षण है। आप किसी भी मतपर हमला या कटाक्ष न करते हुए अपने सिद्धान्तका प्रतिपादन करते हैं। आपकी व्याख्यान शैली बहुत ही स्तुत्य है । इसके बाद और कई प्रकारकी धार्मिक चर्चा करने के बाद उन्होंने चलते वक्त कहा कि महाराज ! कृपा करके फिर कभी दर्शन देना। वाह ! क्याही आपकी वाणीमें मिठास है, जो अन्य मतावलम्बी भी उसे आदरकी दृष्टिसे देख रहे हैं । कविने ठीक ही कहा है:---
मधुर वचन ते जात मिटि उत्तम जन अभिमान । तनिक शीत जलते मिटत जैसे दूध उफान ॥
राहोंसे विहार करके दोतीन कोसपर एक ग्राम है वहां पधारे । इस ग्राममें जैन श्रावकका एक भी घर नहीं । रात्रि के समय एक दो आर्यसमाजी आकर कुछ ऊटपटांग से प्रश्न करने लगे। आपने उनको बड़े धैर्य से उत्तर देकर विदा
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