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( २५) " बड़ी दीक्षा और गुरुदेव की सेवामें" . चातुर्मास समाप्त होने पर आपकी बड़ी दीक्षा हुई । इस दीक्षा का संपादन शान्तमूर्ति श्री हंसविजयजी माहाराज के सुयोग्य शिष्य पन्यासजी श्री संपतविजयजी माहाराज के हाथ से वि. सं. १९६१ मार्गशीर्ष कृष्णा षष्ठी को पालीताणा में हुआ।
"सेव्याः सदा श्रीगुरुकल्पपादपाः"
बड़ी दीक्षा हो जाने के बाद पन्यासजी श्री ललितविजयजी के साथ आपने पंजाब की तर्फ विहार किया। ग्रामानुग्राम विचरते हुए आपने सं. १९६२ का चातुर्मास पंजाब के प्रसिद्ध नगर जीरा में अपने पूज्य गुरुदेव श्रीमद्विजयवल्लभसूरिजी महाराज की सेवा में रह कर व्यतीत किया । आप जैसे सुशील गुणी एवं सत्कर्मी थे वैसे ही खुशमिजाज भी थे। आप बातों ही बातों में साधुओं को हँसा दिया करते थे।
आपने गुरुदेव से भेंट करके जो आनंद मनाया वह अवर्णनीय है। गुरुदेव के चरण-सरोजका स्पर्श कर के आपका मानस-भुंग हर्षातिरेकसे अपने में समाता नहीं था। आप अब अपने गुरुदेवके ही साथ कई वर्षों तक रहे और विद्याभ्यास करते रहे।
आपका वि. सं. १९६३ का चातुर्मास लुधियाना, ६४
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