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( २०१) तलाश की गई । जमनादास मोरारजी जे. पी., के बंगले में हम ठहरे हुए थे, उनका टेलीफोन बिगड़ा पड़ा था, इसमें भी कुछ समय व्यतीत हो गया। आसपास के बंगलों में तलाश करके सेठजीने बम्बई समाचार भेजा, मगर उस वक्त तक मेरे प्यारे धर्मबन्धु उपाध्यायजी महाराज का हंस इस पंजर को छोड़ कर परलोकवासी हो गया था।
रात भर उनकी खबर के इन्तज़ार में मैं जलविहीन मीन की भांति तड़फा । सबेरे तार मिला जिसमें उनके अनिष्ट समाचार थे।
मैंने वहाँ से विलापारला की ओर विहार किया मगर उस समय की मेरी दशा विचित्र थी। उसे मैं कहाँतक वर्णित कर सकता हूं ! मैं पागल हो गया था, मुझे किसी वात की सुधबुध न रह गई थी, मैं रो २ कर यही कहता था:प्रियबन्धु ! " जुदाई तेरी किसको मंजूर है।
____ ज़मीन सख्त आसमान दूर है ॥" ऐ मेरे प्यारे ! ऐ मेरी आंखों के तारे ! सोहन प्यारे! तुम आज कहाँ हो ?
विला पारला में सेठ डाह्याभाई गेलाभाई नामक गुजरात के एक श्रावक रहते हैं । जिन्होंने अस्सी हजार रुपये का एक मकान सेनीटोरीयम के लिए खरीद रखा था; किन्तु
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