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( १९८) बढ़ी चढ़ी थी, इसको अन्दाजा लगाना कठिन है, क्योंकि उन्होंने अपने स्वल्पजीवनमें साढे तीन करोड श्लोक हरएक विषय पर लिखे हैं।
संस्कृत साहित्य में एसा कोई विषय बाकी नहीं, जिसपर आपने कोई पुस्तक न लिखी हो।
अपने यहां अनन्त चतुदशी मानी जाती है । गहरे विचारसे यदि देखा जाय तो यह जैन धर्म के चौदहवें तीर्थकर श्री अनन्तनाथके नाम से ही विख्यात है। इत्यादि ” उपयुक्त विवेचनके बाद सभा विसर्जन की गई।
साधारण रूपसे एक बात यहां और उल्लेखनीय है । जब आप जेहलममें थे, और दूसरे रोज आपका जहेलम नदीके तटपर पबलिक व्याख्यान था, तो आपके शिष्य मुनि समुद्रविजयजीकी, स्थानक वासी साधु श्रीयुत लक्ष्मीचन्दजी से रास्ते में भेंट हो गई । प्रेमपूर्वक वार्तालाप होनेके बाद समुद्रविजयजीने उनसे कहा कि आज गुरुमहाराजका नदीतटपर “जैन धर्मने संसारको क्या दिया" इस विषयपर एक सार्वजनिक भाषण होगा। उसमें आपभी अपने गुरुमहाराजको साथ लेकर पधारें। इसमें जैनशासनकी विशेष शोभा होगी, और जनतापरभी अच्छा प्रभाव पड़ेगा-इत्यादि ।
इसपर लक्ष्मीचन्दजीने कहा कि बहुत अच्छा । व्याख्यानके समय ला. परमानन्दजी, ला० नृपतिरायजी, ला०
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