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( १६०) क्रमशः श्री मित्रविजयजी, श्री समुद्रविजयजी, श्री सागरविजय जी और श्री रविविजयजी ये नाम हैं। इनमें से श्री समुद्र
____x नोटः-दुःख है कि मुनिवर्य श्री सागरविजयजी का देहांत सं० १९९१ श्रावण कृष्णा “ गु० १९९० अषाड कृष्णा " १४-ता० ९-८-१९३४ गुरुवार को सायंकाल के ठीक सात बजे अहमदावाद, रतनपोल, उजमबाइ की धर्मशाला में हो मया ।
आप शान्त स्वभावी, मिलनसार, उत्साही, हिम्मतवान, एवं गुरुभक्त थे।
दीक्षा लेनेके पश्चात् प्रायः आपका शरीर ज्यादातर नरम ही रहा करता था, तो भी आप अपने क्रियाकांड, स्वाध्यायध्यान, आदि नित्यनियमों में और बिहारादि कार्यो में तत्पर रहा करते थे ।
श्रेष्ठीवर्य शाह सौभाग्यचंदजी वागरेचा मुत्ताकी धर्मपत्नी-श्रीमती धावुदेवी की कुक्षीसें आपका जन्म सं० १९४६ धनतेरस के दिन पाली (मारवाड) नगर में हुआ था-आपके गृहस्थपणे का नाम पुखराजजी था।
बाल्यावस्था में ही माताजी का स्वर्गवास हो जानेसें आप अपने पिताश्रीजी के साथ बडोदा “ गुजरात " शहर में पधारे । यहांपर कितनेक कालके बाद सं० १९६३ धनतेरस की रात्रि में आपके पिताश्री जी अपने दो पुत्र एवं एक पुत्री को छोडकर स्वर्गवास हो गये ।
बाद में आपके लघु बंधु सुखराजजीने संसार को असार समझकर दीक्षा स्वीकार की, और आपको भी प्रेरणा करते रहे, जिससे आपने भी सं० १९६९ के फाल्गुन शुक्ला द्वितीया के शुभ दिन श्री पालीताणा " श्री सिद्धाचलजीतीर्थ की पवित्र छाया" में धामधूमसें दीक्षा स्वीकार की और मुनि सागरविजयजी के नामसे प्रसिद्ध हुए।
दीक्षा स्वीकार करके अधिकतर आप अपने गुरुदेव-उपाध्यायजी श्री १०८ श्री सोहन विजयजी महाराज के साथ ही-गुजरात- मेवाड-मारShree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com