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बन्द करके 'गोम्मट-जिननं' श्लोक का गान किया। उनके अन्तरंग की पीड़ा प्रतिस्पन्दित होकर सभी के हृदयों में प्रविष्ट हो गयो। उस उत्तेजनापूर्ण वातावरण में एक तरह की शान्ति उत्पन्न हो गयो।।
"प्रभु! बाहुबली ने करुणा दर्शायी है। मैं स्वयं इन पादत्राणों को अपने सिर पर ढोकर मन्दिर में प्रवेश करूँगा। इनके बनानेवाले दोनों मेरे दोनों पार्श्व में चलेंगे। सन्निधान हमारा मार्गदर्शन करेंगे। आगमशास्त्रियों को घण्टानाद के साथ आगे-आगे चलना होगा। यह जनता स्वयं ही रास्ता बना देगी। यहाँ हिंसा-क्रोध आदि के लिए स्थान नहीं। प्रेम ही हमारे लिए मार्गदर्शक ज्योति है। हम जब तक तैयार होंगे तब सक स्वयं बाहुबली यहाँ विराजमान होकर रास्ता बना देंगे। चिन्ता न करें, आगे बढ़ें।" कहती हुई शान्तलदेवी ने उन दोनों पादत्राणों को अपने सिर पर रख लिया। ..
आगमशास्त्री घपटानाद करते हुए मन्दिर के द्वार की ओर बढ़े। रास्ता रोके हुए तिलकधारियों की जो टोली खड़ी थी, उसने प्रणाम किया और दो भागों में विभक्त होकर रास्ता बना दिया। सभी मन्दिर में प्रविष्ट हुए। रक्षक दल के पीछे तिलकधारी वैष्णवों की टोली, जो अन्दर प्रवेश करना चाहती थी, द्वार पर ही खड़ी रही पानो उसे काठ मार गया हो। फिर दो भागों में विभक्त होकर बीच में रास्ता बना दिया। थोड़ो देर बाद आँखें मल-मलकर देखने लगे। कहने लगे, "कहीं हम पर जादू तो नहीं कर दिया, नहीं तो यह कैसे सम्भव हुआ? पन्दिर में प्रवेश किया केशव भगवान् ने। क्षणभर बाद ही मन्दिर के अन्दर से लौटे नग्न वेशधारी बाहुबली स्वामी। यह सब ऐसा कैसे हो गया?" आश्चर्यचकित होकर तिलकधारियों ने कहा।
मन्दिर के अन्दर की सारी शास्त्रीय विधियाँ समाप्त हुईं। उधर पट्टमहादेवी के बगल में ही खड़े दोनों चर्मकार आनन्द-विभोर हो गये, आनन्द के आँसुओं से आँखें भर आयीं । महाआरती उतारी गयी, फिर तीर्थ--प्रसाद का वितरण हुआ। फिर पहाप्रसाद का भोग भी सम्पन्न हुआ। आश्चर्यजनक व्यवस्था थी, इसलिए किसी भी तरह की गड़बड़ी पैदा नहीं हुई।
शाम को पालकी में केशव भगवान् को ले, वेलापुरी के राजमागों में उत्सव हुआ। लौटने पर रात की पूजा-अर्चा शास्त्रीय विधि के अनुसार सम्पन्न हुई।
अनेक बाधाओं के बावजूद विस्तृत एवं प्रशान्त रीति से प्रतिष्ठा-- महोत्सव सम्पन्न हुआ। आगमशास्त्री आनन्दित हो उठे। भगवान् के शयनोत्सव के पूर्व आरती उतारने के बाद, आरती देते हुए प्रधान आगमशास्त्री ने पट्टमहादेवी से निवेदन किया."पोयसल राष्ट्र के क्षेम और प्रगति के लिए यह प्रतिष्ठा-महोत्सव एक पवित्र भूमिका बन गया है।"
"परन्तु इसके लिए कितनी बाधाएं! कितनी-कितनी मानसिक वेदना !" शान्तलदेवी ने कहा।
पट्टमहादेवी शान्तला : भाग चार :: 39