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मरणकण्डिका - २३
तथा उनके दोषों को दूर करना, यह सब दर्शन के आश्रय से अर्थात् दर्शन विनय का संक्षेप से वर्णन किया गया है ।।४९-५०॥
प्रश्न - शरीर सहित आत्मा का प्रतिबिम्ब तो युक्त है, किन्तु शरीर रहित सिद्ध परमेष्ठी का प्रतिबिम्ब कैसे सम्भव है?
उत्तर - पूर्व भात्र प्रज्ञापन नय की अपेक्षा जो आत्मा सयोगकेवली अवस्था में शरीर में थी वहीं सिद्ध की आत्मा है। शरीर के आकार सदर। यह वेतन आत्मा भी आकारबान ही है। वहीं सम्यक्त्व आदि आठ गुणों सहित है। इस प्रकार सिद्ध की स्थापना संभव है।
प्रश्न - भक्ति और पूजा किसे कहते हैं ?
उत्तर - "अर्हदादिगुणानुरागो भक्ति:" अर्थात् अर्हन्त आदि के गुणों में अनुराग होना भक्ति है। द्रव्य पूजा और भाव पूजा के भेद से पूजा दो प्रकार की है। अष्ट द्रव्य अर्पित करना, उनके आदर में खड़े होना. प्रदक्षिणा देना और शरीर से प्रणाम आदि रूप क्रिया करना तथा वचन से गुणों का स्तवन करना यह द्रव्य पूजा है और मन से उनके गुणों का स्मरण करना भाव पूजा है।
प्रश्न - यशोगान किनका और कैसे किया जाता है?
उत्तर - अर्हन्त देव अठारह दोषों से रहित वीतराग, सर्वज्ञ और हितोपदेशी होते हैं। इस प्रकार विद्वानों की सभा में अर्हन्तों के गुणों का माहात्म्य बताकर उनका यशोगान करना।
कर्मरूपीलेप को जला डालने से उत्पन्न हुए निश्चल स्वास्थ्य से युक्त और अनन्तानन्त काल पर्यन्त अनन्तज्ञानरूप सुख से संतृप्त सिद्ध होते हैं । इस प्रकार सिद्धों का माहात्म्य प्रगट करना, उनका यशोगान है।
जैसे अपने पुत्र सदृश व्यक्ति का दिखना पुत्र की स्मृति का निमित्त है उसी प्रकार अरहन्तादि के प्रतिबिम्ब भी त्रैलोक्य के चूड़ामणि वीतराग अर्हन्तदेव की स्मृति अर्थात् भव्यजीवों के शुभोपयोग के निमित्त हैं, क्योंकि बाह्य द्रव्य के अवलम्बन से शुभाशुभ परिणाम होते हैं।
___ अर्हन्त-सिद्ध परमेष्ठियों के गुणों का यह स्मरण नवीन अशुभ प्रकृति के आस्रव को रोकने में, नवीन शुभ कर्म के बन्ध में, बँधे हुए शुभ कर्म के अनुभाग की वृद्धि में और पूर्वबद्ध अशुभ प्रकृति समूह के अनुभाग को कम करने में समर्थ होता है, अतः समस्त इष्ट पुरुषार्थ की सिद्धि के कारणभूत जिनेन्द्र के प्रतिबिम्बों की उपासना करनी चाहिए। इस प्रकार जिन प्रतिबिम्बों की महत्ता का प्रकाशन करना चैत्य यशोगान है।
श्रुतज्ञान केवलज्ञान सदृश जीवादि द्रव्यों का यथार्थ स्वरूप बताने में समर्थ है। कर्मरूपी ताप को नष्ट करने के लिए शीतल जल के समान है। शभध्यानरूपी चन्दन के लिए मलयपर्वत के समान है। शिघ्य ज द्वारा अन्तःकरण से प्रार्थनीय है। अशुभास्रव को रोकने में सक्षम है। अप्रमादपना लाने में उद्यमशील है। अन्य सभी परोक्ष-प्रत्यक्ष ज्ञानों को उत्पन्न करने का बीज एवं सम्यग्दर्शन-ज्ञान तथा चारित्र में प्रवर्तन करानेवाला है। इस प्रकार श्रुतज्ञान का माहात्म्य प्रगट करना श्रुतज्ञान का यशोगान है।
इसी प्रकार आचार्य, उपाध्याय, साधु, संघ एवं धर्मादि का यशोगान करना चाहिए ।