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मरणकण्डिका - २२
उत्तर - रत्नत्रयधारियों के शारीरिक मल या कोप आदि के निमित्त से होने वाली जुगुप्सा और रत्नत्रय के महत्त्व में अरुचि होना विचिकित्सा नाम का तीसरा अतिचार है।
अतत्त्वदृष्टि व्यक्तियों को मन से श्रेष्ठ मानना अन्यदृष्टि-प्रशंसा है और ऐसे व्यक्तियों की वचन से प्रशंसा करना अन्यदृष्टि संस्तव है।
सम्यक्त्व को शुद्ध करने वाल्ने गुण उपपृहः स्थितीकारो, वत्सलत्वं प्रभावना।
चत्वारोऽमी गुणाः प्रोक्ताः, सम्यग्दर्शन-वधंकाः॥४८॥ अर्थ - उपगूहन, स्थितीकरण, वात्सल्य और प्रभावना ये चार गुण सम्यग्दर्शन की विशुद्धि को वृद्धिंगत करने वाले हैं ॥४८॥
प्रश्न - उपबृहण, स्थितीकरण, वात्सल्य और प्रभावना के क्या लक्षण हैं ?
उत्तर - कान और मन को आह्लादकारी, अग्राम्य, स्पष्ट तथा वस्तु के यथार्थ स्वरूप-प्रकाशन में समर्थ धर्मोपदेश के द्वारा दूसरों की श्रद्धा को बढ़ाना, अथवा सर्वजनों को आश्चर्यकारी इन्द्रादि के द्वारा की जाने वाली पूजा के समान पूजा रचाकर अथवा दुर्धर तप और ध्यान आदि अनुष्ठान द्वारा आत्मा में श्रद्धा को दृढ़ करना उपबृंहण है। इसे उपगूहन भी कहते हैं। अन्य धर्मात्माओं के दोष प्रगट नहीं करना उपगृहन है।
जिनेन्द्रदेव ने जैसा कहा है प्रमेय वैसा ही है, अन्यथा नहीं है क्योंकि वीतरागदेव समस्त पदार्थों के स्वरूप को यथार्थ जानते हैं और यथार्थ ही उपदेश देते हैं । वे दयालु अन्यथा प्रतिपादन नहीं करते, इस प्रकार की भावना से रत्नत्रय में अस्थिर को स्थिर करना स्थितीकरण है।
धर्मात्माओं में गौ-वत्सवत् प्रीति रखना वात्सल्य है। अथवा अपने रत्नत्रय में आदरभाव रखना वात्सल्य है तथा रत्नत्रय का एवं रत्नत्रयधारियों का माहात्म्य प्रगट करना प्रभावना है। इनके साथ जिनेन्द्र के वचनों में शंका न होना निशंकितत्त्व, भोगाकांक्षा का अभाव नि:कांक्षितत्व, धर्म और धर्मात्मा से ग्लानि नहीं करना - निर्विचिकित्सा और परमत के चमत्कार आदि देखकर मूढ़ नहीं होना अमूढदृष्टित्व, ये चार गुण और हैं। इस प्रकार ये सब मिल कर सम्यक्त्व के आठ अंग या गुण कहलाते हैं।
___ सम्यग्दर्शन विनय जिनेश-सिद्ध-चैत्येषु, धर्म-दर्शन-साधुषु । आचार्येऽध्यापके संघे, श्रुते श्रुत-तपोधिके ।।४९ ॥ भक्तिः पूजा-यशोवादौ, दोषावज्ञा-तिरस्क्रिया।
समासेनैष निर्दिष्टो, विनयो दर्शनाश्रयः ।।५० ।। अर्थ - अरहन्त परमेष्ठी, अरहन्त प्रतिमा, सिद्ध परमेष्ठी, सिद्ध की प्रतिमा, जैनधर्म, रत्नत्रय, साधु, आचार्य, उपाध्याय, चतुर्विध संघ, श्रुत और जो श्रुतज्ञान में अपने से अधिक हैं, तप और जो तप में अपने से अधिक हैं, इन सबकी भक्ति करना, पूजा-सत्कार करना, यशोगान करना, धर्मात्मा के दोषों को प्रगट नहीं करना