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कर्मबन्ध का अस्तित्व ९ है, जब कर्म का जीव के साथ बन्ध (सम्बन्ध ) हो । कर्म के कार्यरूप शरीर के साथ शरीरधारी (जीव ) का दूध - पानी की तरह या खड्ग- म्यानवत् गाढ़ सम्बन्ध पाया जाता है । जैसे- शरीर के छेदे भेदे जाने पर जीव को दुःख होता है । शरीर के खींचने से जीव का भी आकर्षण देखा जाता है। शरीर में दाह होने पर जीव में भी दाह-दुःख होता है। जीव के रुष्ट होने पर शरीर में कम्प, दाह, पसीना आदि कार्ग देखे जाते हैं। शरीर के गमनागमन में जीव का भी गमनागमन देखा जाता है। अन्यथा, जीव की इच्छा से शरीर का गमन तथा सिर और अंगुलियों का संचालन नहीं होना चाहिए। कर्म कार्मणशरीरमय है, उसका जीव के साथ बन्ध होता है, तभी शरीरादि से सम्बद्ध सभी कार्य होते हैं। यदि जीव (आत्मा) के साथ कर्म का बन्ध न हो तो फिर समस्त संसारी जीव भी सिद्ध परमात्मा के समान, प्रकट में अनन्त ज्ञानादि गुणों से युक्त होने चाहिए। किन्तु ऐसा सिद्धान्त और व्यवहार दोनों से विरुद्ध है। अतः समस्त संसारी जीव कर्मबन्ध से युक्त हैं, ऐसा सिद्ध होता है । '
उपचार से जीव कर्मबन्ध का कर्ता माना जाता है
प्रश्न होता है - जीव (आत्मा) परमार्थ दृष्टि से केवल अपने भावों का कर्त्ता है, फिर उसे कर्म (बन्ध) का कर्ता क्यों कहा जाता है ? इसका युक्तिसंगत समाधान 'समयसार' में इस प्रकार किया गया है- निमित्तभूत जीव को पाकर उसका कर्मबन्धरूप परिणमन देखकर उपचारवश कहा जाता है-जीव ने कर्मबन्ध किया । उदाहरणार्थ-यद्यपि योद्धा लोग ही युद्ध करते हैं, लेकिन कहा यह जाता है-अमुक राजा ने युद्ध किया। इसी प्रकार व्यवहारनय की अपेक्षा से यह कहा जाता है कि जीव ने ज्ञानावरण आदि कर्मों का बन्ध किया। इस कथन पर से जीव के साथ कर्मबन्ध का अस्तित्व सिद्ध होता है । २
१. (क) सरीरदाहे जीवे दाहेवलभादो, सरीरे भिज्जमाणे छिज्जमाणे च जीवं वेयणोवलं भादो, सरीर-परिसणे जीव-परिसण दंसणादो, सरीर- गमणागामणेहिं जीवस्स गमणागमण-दंसणादो, पडियार-खंडयाणं व दोण्णं भेदा गोवलभादो, एगीभूएबद्धोदयं व एगत्तेणुवल॑भादो ।
-धवला ९/४/१/६३/२७०
(ख) तं च कम्मं जीवसंबद्धं चेव तं कुदो गव्वदे ? मुत्तेण सरीरेण कम्म कज्जेण जीवस्स संबंधण्णहाणुववत्तदो । ण च संबंधो; सरीरे छिज्जमाणे जीवस्स दुक्खुवलंबादो' 'जीये गच्छंते ण सरीरेण गतव्य, "जीवे रुट्ठे, कंप पुलउग्गं धम्मादयो ण होज्ज । सव्वेसिं जीवाणं केवलणाण-सम्मत्तादओ होज्ज । ण च एवं। तहाणुब्भवगमादो।'
कसायपाहुड १/१/१/४०
- प्रवचनसार २ / ८२
२. (क) स्ववादिरहिं रहिदो एच्छदि जाणादि रूवमादीणि । दव्वाणि गुणे य जधा तह बंधो तेण जाणीहि || (ख) जीवम्मि हेदुभूदे, बंधस्स दु परिसदूण परिणामं । जीवेण कड कम्म, भणदि उवयारमत्तेण ॥ जोधेहिं कदे जुद्धे, राएण कदं ति जप्पदे लोगो । तह ववहारेण कर्द, णाणावरणादि जीवेण ||
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- समयसार गा. १०५, १०६
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