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२९२ कर्म-विज्ञान : भाग ४ : कर्मबन्ध की सार्वभौम व्याख्या (७) सुख और दुःख स्वकृतकों का ही फल ___ जीवों को जो भी सुख या दुःख मिलते हैं, उन्हें न तो कोई ईश्वर या खुदा देता है, न ही कोई देवी-देव शक्ति या मानव देता है, न ही दे सकता है, जो भी सुख या दुःख के रूप में फल मिलते हैं, वे सब अपने ही द्वारा इस भव में या पूर्वभव में पहले (बांधे) किये हुए साता-असातावेदनीय रूप कर्मबीज के फल हैं। सुखों के बीज बोने पर जीवन की वाटिका सुखशान्ति के सुगन्धित पुष्पों से महकती मिलती है और दुःखों के बीज बोने पर दुःख, शोक, अशान्ति, चिन्ता, अस्वस्थता, तनाव आदि असातावेदनीय कर्म के फल प्राप्त होते हैं। अतः जो मनुष्य सुखों के झूले पर झूलना चाहता है, उसे खेद-खिन्न, पीड़ित, दुःखी और अशान्त जीवों के दुःखों को अपना' दुःख समझ कर सुखों के बीज बोने चाहिए। दुःखों के बीज हर्गिज नहीं बोने चाहिए, तभी मनुष्य सुखानुभव कर सकता है और दुःख से बच सकता है तथा अपने और दूसरों के जीवन को सन्तुष्ट, सुखी और शान्त बना सकता है।'
१. ज्ञान का अमृत से भावांशग्रहण, पृ. २७७
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