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उत्तर-प्रकृतिबन्ध : प्रकार, स्वभाव और कारण-३ ३०५ इस प्रकार 'मिथ्यात्व' में अनेक प्रकार की तरतमता होती है, उसे अनेक पहलुओं से जानना-समझना और सम्यक्त्व को सुदृढ़ करना, प्रत्येक आम्मार्थी मुमुक्षु का कर्तव्य है।
मिथ्यात्व से ग्रस्त जीव का मिथ्या-असफल जीवन मिथ्यात्व-मोहनीय कर्म के उदय से जीव इस प्रकार के मिथ्यात्व से ग्रस्त रहता है। उसमें तत्त्व के प्रति रुचि या श्रद्धा नहीं होती। या तो उसमें विचारशक्ति, जिज्ञासा या सूझबूझ ही नहीं होती, या फिर पकड़ी हुई बात को मिथ्या होते हुए भी, दूसरों के द्वारा भलीभाँति युक्तिपूर्वक समझाने पर भी न छोड़ने का दुराग्रह होता है, अथवा मिथ्या अभिनिवेश होता है। मिथ्यात्व-मोहनीय की छाया जिस पर पड़ जाती है, वह व्यक्ति विशुद्ध धर्म की हंसी उड़ाता है; क्षमा, ऋजुता, मृदुता आदि धर्मों को कायरता समझ कर उनके प्रति उसकी जरा भी रुचि नहीं होती। वह धर्माचरण करने वालों को व्यंगपूर्वक भगत कहकर मजाक करता है, अथवा सद्धर्म का अनुसरण करने वालों की अवज्ञा करता है। अपने माने हुए, परम्परागत देव या गुरु की जांच-परख नहीं करता, अन्धविश्वासपूर्वक मानता है और उन्हीं का पक्ष लेता है। आदर्श देव-वीतराग सर्वज्ञ देव को नहीं पहचानता, सांसारिक लौकिक लाभ वाले देव की सेवाभक्ति करता है। सचमुच, मिथ्यात्वमोहनीय के साथ अज्ञान, अन्धविश्वास, भ्रम आदि मिल जाएँ तब तो उसका नशा अधिकाधिक चढ़ता जाता है और भवभ्रमण में वृद्धि करने का द्वार खोल देता है।
व्यवहारसूत्र भाष्य में मिथ्यात्व-ग्रस्त होने के ४ मुख्य कारण बताए गये हैं। वे इस प्रकार हैं-(१) मतिभेद, (२) पूर्वव्युद्ग्रह, (३) (मिथ्यात्वी का) संसर्ग, और (४) अभिनिवेश। इन चारों के ४ उदाहरण भी प्रस्तुत किये गए हैं-मतिभेद से जमाली मुनि, पूर्व-व्युद्ग्रहवश गोविन्द, (३) संसर्ग से श्रावक भिक्षु और (४) अभिनिवेश से गोष्ठामाहिल मिथ्यादृष्टि बन गया।२ मिश्रमोहनीय कर्म : स्वरूप और कार्य '. इसका दूसरा नाम सम्यग्-मिथ्यात्व-मोहनीयकर्म है। जिस कर्म के उदय से जीव में न तो तत्त्व के प्रति रुचि या श्रद्धा होती है, न ही अतत्त्व के प्रति रुचि या श्रद्धा; किन्तु जीव की डाँवाडोल स्थिति बनी रहती है। उसे मिश्रमोहनीय कर्म कहते हैं। इस
१. मिथ्यात्व के विषय में विशेष स्पष्टीकरण के लिए देखें, इसी खण्ड का पाँचवाँ लेख; कर्मबन्ध
का सर्वाधिक प्रबल कारण : मिथ्यात्व । २. मति भेया १, पुव्वुग्गह २, संसग्गीए य ३, अभिनिवेसेणं ४ ।
गोविंदे य २ जमाली १,सव्वग तवनिए ३ गोटे ४ ॥ २६८ ॥ मतिभेएण जमाली, पुव्वुगहिएण होइ गोविंदो । संसग्गि सावगभिक्खू, गोट्ठामाहिल अभिनिवेसे ॥२६९॥
-व्यवहार भाष्य उ.६
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