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४५४ कर्म-विज्ञान : भाग ४ : कर्मबन्ध की सार्वभौम व्याख्या (७) अनुभाग (रस) बन्ध होता है। अर्थात्-समस्त अशुभ प्रकृतियों के बन्ध-कर्ता-प्राणियों में से जो-जो उत्कृष्ट संक्लेश-तीव्र कषाय वाला प्राणी है, उसमें संक्लेश-परिणामों की वृद्धि और विशुद्ध परिणामों की हानि होने से, वह-वह यथायोग्य तीव्रादि रस का बन्ध करता है। इसी तरह पूर्वोक्त प्रकार संक्लेश परिणामों की वृद्धि और विशुद्ध परिणामों की हानि से बयालीस शुभ प्रकृतियों का क्रमशः मन्द, मन्दतर, मन्दतम एवं अत्यन्त मन्द अनुभाग (रस) बन्ध होता है। इसी प्रकार संक्लेश परिणामों की मन्दता और विशुद्ध परिणामों की वृद्धि होने से ४२ पुण्य (शुभ) प्रकृतियों का तीव्र, तीव्रतर, तीव्रतम और अत्यन्त तीव्र अनुभाग (रस) बन्ध होता है, तथैव बयासी पाप प्रकृतियों का मन्द, मन्दतर, मन्दतम एवं अत्यन्त मन्द अनुभाग (रस) बन्ध होता है। ...
यद्यपि रस (अनुभाग) के असंख्य प्रकार हैं, और एक-एक कर्म के रस के असंख्य-असंख्य प्रकार होते हुए भी उन सबका समावेश पूर्वोक्त चार प्रकारों अथवा स्थानों में हो जाता है। रसबन्ध के चारों प्रकारों के चार स्थान : दृष्टान्त द्वारा सिद्ध
इन चारों प्रकारों को क्रमशः एकस्थानिक (एकठाणिया), द्वि-स्थानिक (दो ठाणिया), त्रिस्थानिक (तीन ठाणिया) और चतुःस्थानिक (चार ठाणिया) कहा जाता है। एकस्थानिक से तीव्र या मन्द का, द्विस्थानिक से तीव्रतर या मन्दतर का, त्रिस्थानिक से तीव्रतम या मन्दतम का और चतुःस्थानिक से अत्यन्त तीव्र या अत्यन्त मन्द का ग्रहण करना चाहिए। इन चारों को इस प्रकार समझिए-जैसे-शक्कर की चासनी एक तार की, दो तार की, तीन चार की और चार तार की बनाई जाती है, वैसे ही एकठाणिया रस एक तार की चासनी के समान, दो ठाणिया दो तार की, तीन ठाणिया तीन तार की और चार ठाणिया चार तार की चासनी के समान समझना चाहिए। अर्थात्-इन्हें क्रमशः अत्यन्त तरल, कुछ गाढ़, अधिक गाढ़ और अत्यन्त गाढ़ चासनी के तुल्य जानना चाहिए।२ रसबन्ध : इक्षुरस या निम्बरस के दृष्टान्त से एक ठाणिया से लेकर चार
ठाणिया तक
दूसरे प्रकार से समझिए-ईख या नीम के स्वाभाविक ताजा रस के समान एकठाणिया रसबन्ध (तीव्र या मन्द) होता है, ईख या नीम का रस उबालने पर जब गाढ़ा होकर आधा रह जाता है, तब वह कर्म का दो ठाणिया (तीव्रतर या मन्दतर) रसबन्ध होता है। इस रस में पहले वाले से अधिक मात्रा में फल देने की शक्ति होती १. (क) कर्मग्रन्थ, भाग ५ (पं. कैलाशचन्द्रजी) पृ. १७३
(ख) कर्मग्रन्थ भा. ५ (मरुधर केशरी) पृ. २२७
(ग) अभिधान राजेन्द्र कोष भा. १ पृ. ३९३ २. रे कर्म ! तेरी गति न्यारी, से पृ. ५५-५६
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