Book Title: Karm Vignan Part 04
Author(s): Devendramuni
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay

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Page 545
________________ स्थितिबन्ध : स्वरूप, कार्य और परिणाम ४९७ पूर्वोक्त छह प्रकृतियों के विषय में विशेष विवरण पूर्वोक्त छह प्रकृतियों के विषय में इतना विशेष जानना चाहिए कि ईशान स्वर्ग से ऊपर के सानत्कुमार आदि स्वर्गों के देव ही सेवा संहनन और औदारिक अंगोपांग का उत्कृष्ट स्थितिबन्ध करते हैं। ईशान तक के देव नहीं क्योंकि ईशान तक के देव उनके योग्य संक्लेश परिणामों के होने पर भी अधिक से अधिक १८ सागर प्रमाण मध्यम स्थिति का ही बन्ध करते हैं और यदि उनके उत्कृष्ट संक्लेश परिणाम होते हैं तो एकेन्द्रिय के योग्य प्रकृतियों का बन्ध करते हैं; जबकि सानत्कुमार आदि स्वर्गों के देव उत्कृष्ट संक्लेश होने पर भी पंचेन्द्रिय तिर्यञ्च के योग्य प्रकृतियों का ही बन्ध करते हैं। एकेन्द्रिय-योग्य प्रकृतियों का नहीं; क्योंकि उनकी उत्पत्ति एकेन्द्रियों में नहीं होती। अतः इन प्रस्तुत दो प्रकृतियों का बीस सागरोपम-प्रमाण उत्कृष्ट स्थितिबन्ध उत्कृष्ट संक्लेश परिणाम वाले सानत्कुमार आदि स्वर्गों के देव ही करते हैं, नीचे के देव नहीं; क्योंकि ये दोनों प्रकृतियाँ एकेन्द्रिय-योग्य नहीं हैं। एकेन्द्रिय के संहनन और अंगोपांग नहीं होते। निष्कर्ष यह है कि समान-परिणाम होते हुए भी गति आदि के भेद से उनमें भेद हो जाता है। जैसे-जिन परिणामों से ईशान स्वर्ग तक के देव एकेन्द्रिय के योग्य प्रकृतियों का बन्ध करते हैं, वैसे ही परिणाम होने पर मनुष्य और तिर्यञ्च नरकगति के योग्य प्रकृतियों का बन्ध करते हैं। अतः मिथ्यादृष्टि के बंधने योग्य ११६ प्रकृतियों में से २४ प्रकृतियों के सिवाय शेष ९२ प्रकृतियों का उत्कृष्ट स्थितिबंध चारों ही गति के मिथ्यादृष्टि जीव करते हैं।' जघन्य स्थितिबन्ध के स्वामी आहारक-द्विक और तीर्थकर नामकर्म का जघन्य स्थितिबन्ध अपूर्वकरण नामक आठवें गुणस्थान में होता है, और संज्वलन कषाय तथा पुरुषवेद का जघन्य स्थितिबन्ध अनिवृत्तिकरण नामक नौवें गुणस्थान में होता है। जैसे उत्कृष्ट स्थितिबन्ध के लिये उत्कृष्ट संक्लेश का होना आवश्यक है, वैसे ही जघन्य स्थितिबन्ध के लिए उत्कृष्ट विशुद्धि का होना आवश्यक है। यही कारण है कि आहारकद्विक और तीर्थकर नाम का जघन्य स्थितिबन्ध आठवें में, और संज्वलन कषायचतुष्क एवं पुरुषवेद का जघन्य स्थितिबन्ध नौवें गुणस्थान में बतलाया है। इन प्रकृतियों का बन्ध इन्हीं गुणस्थानों तक होता है। अतः इनके बन्धकों में उक्त गुणस्थान वाले जीव ही अतिविशुद्ध होते हैं। यहाँ इतना विशेष समझ लें कि उक्त दोनों गुणस्थान क्षपक श्रेणि के ही लेने चाहिए। क्योंकि उपशम श्रेणि से क्षपकश्रेणि में विशेष विशुद्धि होती है।२ १. कर्मग्रन्थ भा. ५ गा. ४४ के पूर्वार्द्ध का विवेचन, पृ. १३०-१३१ २. आहार-जिणमपुव्वोऽनियट्ठि-संजलण-पुरिस लहुँ ॥४४॥ -कर्मग्रन्थ भा. ५, विवेचन पृ. १३१ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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