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स्थितिबन्ध : स्वरूप, कार्य और परिणाम ५०१ गुणस्थानों में स्थितिबन्ध का विचार अब गुणस्थानों की अपेक्षा से यह बतलाया जाता है कि किस गुणस्थान में कितना स्थितिबन्ध होता है ? सास्वादन गुणस्थान से लेकर अपूर्वकरण (अष्टम) गुणस्थान तक
अन्तः कोटि-कोटि सागर से न तो अधिक ही स्थिति बंधती है, और न ही कम बंधती है। क्योंकि सास्वादन आदि गुणस्थानवी जीव मिथ्यात्वग्रन्थी का भेदन कर देते हैं। अतः उनके अन्तः कोटि-कोटि सागर प्रमाण ही स्थितिबन्ध होता है, उससे अधिक नहीं। इससे फलितार्थ यह निकला कि अन्तः कोटि-कोटि सागर से अधिक स्थितिबन्ध केवल मिथ्यात्व गुणस्थान में ही होता है। इससे एक बात स्पष्ट हो जाती है कि अपूर्वकरण गुणस्थान तक अन्तः कोटि-कोटि सागर से हीन स्थिति का निषेध करने से उससे आगे के अनिवृत्तिकरण आदि गुणस्थानों में अन्तः कोटि-कोटि सागर से भी कम स्थितिबन्ध होता है। सम्यक्त्व का वमन करके जो पुनः मिथ्यात्व गुणस्थान में आ जाते हैं, उनके ही उत्कृष्ट स्थितिबन्ध होता है, मिथ्यात्वग्रन्थी के भेदन करने वालों के नहीं, इस कारण सास्वादन आदि गुणस्थानवर्ती मिथ्यात्वग्रन्थी का भेदन करने वाले जीवों के अन्तः कोटि-कोटि सागर प्रमाण ही स्थितिबन्ध होता है, उससे अधिक बन्ध नहीं।
एकेन्द्रियादि जीवों की अपेक्षा से स्थितिबन्ध का अल्पबहुत्व अब कर्मग्रन्थ के अनुसार-किस जीव के अधिक स्थितिबन्ध होता है, किस जीव के कम ? इस प्रकार स्थितिबन्ध के अल्पबहुत्व का निरूपण कर रहे हैं। (१) सबसे कम (जघन्य) स्थितिबन्ध यति अर्थात्-सूक्ष्मसम्पराय नामक दशम गुणस्थानवर्ती साधु के होता है। (२) उससे बादर पर्याप्तक एकेन्द्रिय का जघन्य स्थितिबन्ध असंख्यातगुणा है, (३) उससे सूक्ष्म पर्याप्तक एकेन्द्रिय के होने वाला जघन्य स्थितिबन्ध कुछ अधिक है। (४) उससे बादर अपर्याप्तक एकेन्द्रिय के होने वाला जघन्य स्थितिबन्ध कुछ अधिक है। (५) उससे सूक्ष्म अपर्याप्तक एकेन्द्रिय का जघन्य स्थितिबन्ध कुछ अधिक है। (६) उससे सूक्ष्म अपर्याप्तक एकेन्द्रिय का उत्कृष्ट स्थितिबन्ध कुछ अधिक है। (७) उससे बादर अपर्याप्तक एकेन्द्रिय का उत्कृष्ट स्थितिबन्ध कुछ अधिक है। (८) उससे सूक्ष्म पर्याप्तक एकेन्द्रिय का उत्कृष्ट स्थितिबन्ध कुछ अधिक है। (९) उससे बादर पर्याप्तक एकेन्द्रिय का उत्कृष्ट स्थितिबन्ध कुछ अधिक है। (१०) उससे द्वीन्द्रिय पर्याप्तक का जघन्य स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है। (११) उससे द्वीन्द्रिय अपर्याप्तक का जघन्य स्थितिबन्ध कुछ अधिक है। (१२) उससे द्वीन्द्रिय अपर्याप्तक का उत्कृष्ट स्थितिबन्ध कुछ अधिक है। (१३) उससे द्वीन्द्रिय पर्याप्तक का उत्कृष्ट स्थितिबन्ध कुछ अधिक है। (१४) उससे त्रीन्द्रिय पर्याप्तक का जघन्य स्थितिबन्ध कुछ अधिक है। (१५) उससे त्रीन्द्रिय अपर्याप्तक का जघन्य स्थितिबन्ध कुछ अधिक है। (१६) उससे
१. साणाइ अपुवंते अयरंतो कोडिकोडिउ न हिगो ।
बंधो न हु हीणो न य मिच्छे भव्यियरसंनिमि ॥
-कर्मग्रन्थ भा. ५ गा. ४८, पृ. १३८-१३९
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