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स्थितिबन्ध : स्वरूप, कार्य और परिणाम ४९९ उत्कृष्टादि चार भेदों के माध्यम से सादि, ध्रुव आदि स्थितिबन्ध का विचार मूलप्रकृतियों के स्थितिबन्ध के चार भेद बताए गये हैं-उत्कृष्ट, अनुत्कृष्ट, जघन्य और अजघन्य। प्रकारान्तर से भी उनके सादि, अनादि, ध्रुव और अध्रुवबन्ध की अपेक्षा से चार प्रकार सम्भव हैं। मूल प्रकृतियों में उत्कृष्ट आदि चारों ही बन्ध होते हैं। उनमें से ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय, मोहनीय, नाम, गोत्र और अन्तराय इन ७ कर्मों का अजघन्यबन्ध सादि भी होता है, अनादि भी। तथा ध्रुव भी होता है, अध्रुव भी। क्योंकि इन ७ कर्मों में से मोहनीय कर्म का जघन्यबन्ध केवल क्षपकश्रेणि के अनिवृत्तिबादरसम्पराय नामक नौवें गुणस्थान के अन्त में होता है और शेष ६ कों का जघन्य स्थितिबन्ध क्षपक सूक्ष्म सम्पराय नामक १०वें गुणस्थान के अन्त में होता है। उनके सिवाय अन्य गुणस्थानों में, यहाँ तक कि उपशमश्रेणि में भी इन ७ कर्मों का अजघन्य बन्ध होता है। अतः ११वें गुणस्थान में अजघन्यबन्ध न करके वहाँ से च्युत होकर जब जीव पुनः ७ कर्मों का अजघन्य स्थितिबन्ध करता है, तब वह बन्ध सादि कहलाता है और नौवें, दसवें आदि गुणस्थानों में आने से पहले उक्त ७ कर्मों का जो अजघन्य बन्ध होता है, वह अनादि कहलाता है। क्योंकि अनादिकाल से निरन्तर उसका बन्ध होता रहता है। अभव्य के जो अजघन्य बन्ध होता है, वह ध्रुव कहलाता है, क्योंकि उसका अन्त नहीं होता। भव्य के जो अजघन्य बन्ध होता है, वह अध्रुव होता है, क्योंकि उसका अन्त हो जाता है। इस प्रकार ७ कर्मों के अजघन्य बन्ध में चारों ही भंग होते हैं। शेष तीन बंधों में सादि और अध्रुव, यों पूर्वोक्त कथनानुसार दो ही प्रकार होते हैं। - इसी प्रकार जघन्य बन्ध में केवल दो ही विकल्प होते हैं-सादि और अध्रुव। उत्कृष्ट स्थितिबन्ध संक्लिष्ट-परिणामी पर्याप्त संज्ञी पंचेन्द्रिय मिथ्यादृष्टि जीव के ही होता है। यह बन्ध कभी-कभी होता है, सदा नहीं। इसलिए सादि है तथा अन्तर्मुहूर्त के बाद नियम से इसका स्थान अनुत्कृष्ट बन्ध ले लेता है, इस कारण अध्रुव भी है। उत्कृष्ट बन्ध में भी सिर्फ दो विकल्प होते हैं। उत्कृष्ट बन्ध के पश्चात् अनुत्कृष्ट बन्ध होता है, इसलिए वह सादि है। और कम से कम अन्तर्मुहूर्त के बाद और अधिक से अधिक अनन्त उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी काल के पश्चात् उत्कृष्ट बन्ध के होने पर अनुत्कृष्ट बन्ध रुक जाता है। अतः वह अध्रुव कहलाता है। निष्कर्ष यह है कि उत्कृष्ट बन्ध एवं अनुत्कृष्ट बन्ध की पूर्वोक्त काल-सीमा के बाद दोनों परस्पर एक-दूसरे का स्थान ले लेते हैं। अतः दोनों ही सादि और अध्रुव होते हैं। इस प्रकार ७ कर्मों के शेष तीन बन्धों में सादि और अध्रुव भंग ही होते हैं।
१. (क) उत्कृष्ट, अनुत्कृष्ट, जघन्य, अजघन्य, सादि-अनादि, ध्रुव अध्रुव आदि के लक्षणों लिए
देखें-रसबन्ध के प्रकरण में तथा कर्मग्रन्थ भा. ५ के पृष्ठ १३४ पर (ख) उक्कोस-जहन्ने यद्भगा साइअणाइ-धुव-अधुवा ।। चउहा सग अजहन्नो सेस तिगे, आउचउसु दुहा ॥४६॥
कर्मग्रन्थ भा. ५ विवेचन, पृ. १३३, १३४
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