Book Title: Karm Vignan Part 04
Author(s): Devendramuni
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay

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Page 552
________________ ५०४ कर्म-विज्ञान : भाग ४ : कर्मबन्ध की सार्वभौम व्याख्या (७) है, जो कि उत्कृष्ट स्थितिबन्ध का कारण है! यह तो हुई शुभ प्रकृतियों की बात। अशुभ-प्रकृतियों में तो अनुभाग अधिक होने पर स्थिति भी अधिक और अनुभाग कम होने पर स्थितिबन्ध भी कम होता है, क्योंकि दोनों का कारण कषाय की तीव्रता ही है। अतः उत्कृष्ट स्थितिबन्ध ही अशुभ है। उनका कारण है-कषायों की तीव्रता। तथा . शुभ प्रकृतियों का उत्कृष्ट अनुभागबन्ध शुभ है, उसका कारण है-कषायों की मन्दता। अतः उत्कृष्ट स्थितिबन्ध की तरह उत्कृष्ट अनुभागबन्ध को सर्वथा अशुभ नहीं माना जा सकता। सारांश यह है कि उत्कृष्ट संक्लेश से उत्कृष्ट स्थितिबन्ध और विशुद्धि से जघन्य स्थितिबन्ध होता है, मगर तीन प्रकृतियाँ (देवायु, मनुष्यायु, तिर्यञ्चायु) इस नियम के. अपवाद हैं। इन तीन प्रकृतियों की उत्कृष्ट स्थिति शुभ मानी जाती है, क्योंकि उनका बन्ध विशुद्धि से होता है और जघन्य स्थिति अशुभ मानी जाती है, क्योंकि उसका बन्ध संक्लेश से होता है। आशय यह है कि उपर्युक्त तीनों प्रकृतियों की उत्कृष्ट स्थिति मन्द कषाय से और जघन्य स्थिति तीव्र कषाय से बंधती है। इनके सिवाय शेष प्रकृतियों की उत्कृष्ट स्थिति तीव्र कषाय से और जघन्य स्थिति मन्द कषाय से बंधती है। स्थितिबन्ध में कषाय के साथ योग का भी संयोग स्थितिबन्ध में कषाय की प्रधानता है, फिर भी योग (मन-वचन-काया की प्रवृत्ति) भी अमुक काषायिक अध्यवसाय से युक्त होती है, इसलिए वह भी गौणरूप से स्थितिबन्ध में सहायक होती है। यही कारण है कि कर्मग्रन्थकार जीवों के स्थितिबन्ध होने में कषाय के साथ योगों के अल्पबहुत्व की भी विचारणा करते हैं। सूक्ष्म निगोदिया लब्ध-पर्याप्तक जीव के प्रथम समय में सबसे अल्प योग होता है। उससे बादर एकेन्द्रिय, विकलत्रय, असंज्ञी और संज्ञी लब्ध-पर्याप्तक का जघन्य योग असंख्यातगुणा है। उससे प्रारम्भ के दो लब्धपर्याप्तक (सूक्ष्म और बादर) एकेन्द्रिय का उत्कृष्ट योग संख्यातगुणा है। उससे दोनों ही पर्याप्तकों का जघन्य योग असंख्यात गुणा है। उससे दोनों ही पूर्वोक्त पर्याप्तकों का उत्कृष्ट योग असंख्यातगुणा है। उससे अपर्याप्त त्रसों का उत्कृष्ट योग असंख्यातगुणा है, उससे पर्याप्त त्रसों का जघन्य योग असंख्यात गुणा है। उससे पर्याप्त त्रसों का उत्कृष्ट योग असंख्यातगुणा है। इसी प्रकार १. (क) सव्वाण वि जिट्ठठिई असुभा, ज साइ-संकिलेसेणं । इयरा विसोहिउ पुण मुत्तुं, नर-अमर-तिरियाउं ॥ -कर्मग्रन्थ भा. ५, गा. ५२ (ख) सव्वविदीणमुक्कस्सओ दु उक्कस-संकिलेसेण । विवरीदेण जहण्यो, आउ-गतिय-वज्जियाणं तु॥ -गोम्मटसार कर्मकाण्ड गा. १३४ (ग) कर्मग्रन्थ भा. ५, गा. ५२ के विषय का विश्लेषण, पृ. १४७ से १४९ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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