Book Title: Karm Vignan Part 04
Author(s): Devendramuni
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay

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Page 550
________________ ५०२ कर्म-विज्ञान : भाग ४ : कर्मबन्ध की सार्वभौम व्याख्या (७) त्रीन्द्रिय अपर्याप्तक का उत्कृष्ट स्थितिबन्ध कुछ अधिक है। (१७) उससे त्रीन्द्रिय पर्याप्तक का उत्कृष्ट स्थितिबन्ध कुछ अधिक है। (१८) उससे पर्याप्तक चतुरिन्द्रिय का जघन्य स्थितिबन्ध कुछ अधिक है। (१९) उससे अपर्याप्तक चतुरिन्द्रिय का जघन्य स्थितिबन्ध कुछ अधिक है। (२०) उससे अपर्याप्त चतुरिन्द्रिय का उत्कृष्ट स्थितिबन्ध कुछ अधिक है। (२१) उससे पर्याप्त चतुरिन्द्रिय का उत्कृष्ट स्थितिबन्ध कुछ अधिक है। (२२) उससे पर्याप्त असंज्ञी पंचेन्द्रिय का जघन्य स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है। (२३) उससे अपर्याप्त असंज्ञी पंचेन्द्रिय का जघन्य स्थितिबन्ध कुछ अधिक है। (२४) उससे अपर्याप्त' असंज्ञी पंचेन्द्रिय का उत्कृष्ट स्थितिबन्ध कुछ अधिक है। (२५) उससे पर्याप्त असंज्ञी पंचेन्द्रिय का उत्कृष्ट स्थितिबन्ध कुछ अधिक है। (२६) उससे संयत का . उत्कृष्ट स्थितिबन्ध संख्यात-गुणा है। (२७) उससे देशसंयत का जघन्य स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है। (२८) उससे देशसंयत का उत्कृष्ट स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है। (२९) उससे पर्याप्त सम्यग्दृष्टि का जघन्य स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है। (३०) उससे अपर्याप्त सम्यग्दृष्टि का जघन्य स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है। (३१) उससे अपर्याप्तक सम्यग्दृष्टि का उत्कृष्ट स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है। (३२) उससे पर्याप्त सम्यग्दृष्टि का उत्कृष्ट स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है। (३३) उससे अपर्याप्त संज्ञी पंचेन्द्रिय मिथ्यादृष्टि का जघन्य स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है। (३४) उससे पर्याप्त संज्ञी पंचेन्द्रिय मिथ्यादृष्टि का जघन्य स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है। (३५) उससे अपर्यातसंज्ञी पंचेन्द्रिय मिथ्यादृष्टि का उत्कृष्ट स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है। (३६) उससे संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त मिथ्यादृष्टि का उत्कृष्ट स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है। इस प्रकार दसवें गुणस्थान से ही स्थितिबन्ध के अल्पबहुत्व का वर्णन प्रारम्भ होता है, और पर्याप्त-संज्ञी-पंचेन्द्रिय मिथ्यादृष्टि के सबसे उत्कृष्ट स्थितिबन्ध होता है, यहाँ आकर वर्णन समाप्त होता है।२ स्थितिबन्ध की दृष्टि से शुभ और अशुभ स्थिति की मीमांसा साधारण जनता शुभ प्रकृति में अधिक स्थिति बंधने को अच्छा समझती है, क्योंकि उत्कृष्ट स्थिति के बंधने से शुभ प्रकृति बहुत दिनों तक शुभ फल देती रहती है। किन्तु कर्मशास्त्र की दृष्टि से बन्ध आखिर बन्ध है, पराधीनतारूप है, वह निर्जरा (कर्मक्षय) या कर्ममुक्ति नहीं है, इस अपेक्षा से अधिक (उत्कृष्ट) स्थितिबन्ध का होना अच्छा नहीं है। क्योंकि स्थितिबन्ध का मूल कारण कषाय है। जिस श्रेणी का कषाय होता है, स्थितिबन्ध भी उसी श्रेणी का होता है। अतः उत्कृष्ट स्थितिबन्ध उत्कृष्ट कषाय से होता है, इसलिये उसे अच्छा नहीं कहा जा सकता। . १. कर्मग्रन्थ भा. ५, गा. ४९ के ५१ का विवेचन (प. कैलाशचन्द्रजी) से, पृ. १४२ २. (क) कर्मग्रन्थ भा. ५, गा. ४९ से ५१ तक का विवेचन (वही.) पृ. १४३ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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