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५०० कर्म-विज्ञान : भाग ४ : कर्मबन्ध की सार्वभौम व्याख्या (७)
आयुकर्म का बन्ध सदा-सर्वदा नहीं होता, अपितु नियत समय में ही होता है। अतः वह सादि है तथा उसका निरन्तर बंध केवल अन्तर्मुहूर्त तक ही होता है। अन्तर्मुहूर्त के बाद नियमतः वह रुक जाता है, इसलिए वह अध्रुव है।
इस प्रकार आठों मूलकों के अजघन्य आदि चारों बंधों में सादि आदि विकल्प जान लें। उत्तरप्रकृतियों में अजघन्य आदि बंधों में सादि आदि भंगों का निरूपरण ..
१२० बन्धयोग्य प्रकृतियों में अजघन्य बन्ध वाली सिर्फ १८ प्रकृतियाँ हैंसंज्वलनकषाय-चतुष्क, ज्ञानावरणादि पांच, चक्षुदर्शनावरणादि चार, और पांच अन्तराय; इन १८ प्रकृतियों के अजघन्य बन्ध में सादि, अनादि, ध्रुव, अध्रुव ये चारों ही विकल्प होते हैं। इनमें अजघन्य स्थिति का प्रारम्भ उपशमश्रेणि से पतित होने वाले के होता है। उपशमश्रेणि में इंन १८ प्रकृतियों के बन्ध का विच्छेद करके, वहाँ से च्युत होकर पुनः उनका अजघन्य स्थितिबन्ध करता है, तो वह बन्ध सादि होता है । तथा उपशमश्रेणि में आरोहण करने से पूर्व वह बन्ध अनादि होता है, अभव्य का वही बन्ध ध्रुव और भव्य का अध्रुव होता है। इन १८ प्रकृतियों के अजघन्य बन्ध के सिवाय शेष तीन बन्धों में प्रत्येक के सादि और अध्रुव, ये दो ही विकल्प होते हैं। क्योंकि नौवें गुणस्थान में अपनी-अपनी बन्ध-व्युच्छित्ति के समय संज्वलन-चतुष्क का जघन्य बन्ध होता है, और शेष ज्ञानावरण पंचक आदि १४ प्रकृतियों का. जघन्य बन्ध १०वें सूक्ष्मसम्पराय क्षपक गुणस्थान के अन्त में होता है। यह बन्ध इन गुणस्थानों में
आने से पहले नहीं होता, अतः सादि है और आगे के गुणस्थानों में जाने के बाद बिलकुल रुक जाता है, अतः अध्रुव है। इसी प्रकार उत्कृष्ट व अनुत्कृष्ट बन्ध में भी समझना चाहिए। क्योंकि ये दोनों बन्ध परिवर्तित होते रहते हैं। जीव कभी उत्कृष्ट बन्ध करता है, कभी अनुत्कृष्ट बन्ध।
शेष एक सौ दो प्रकृतियों के उत्कृष्ट आदि चारों ही प्रकार के बन्धों में सादि और अध्रुव ये दो भंग होते हैं, क्योंकि ५ निद्रा, मिथ्यात्व, आदि की १२ कषाय, भय, जुगुप्सा, तैजस, कार्मण, वर्णचतुष्क, अगुरुलघु, उपघात और निर्माण इन २९ प्रकृतियों का जघन्य स्थितिबन्ध विशुद्धि युक्त बादर एकेन्द्रिय-पर्याप्तक करता है। अन्तर्मुहूर्त के बाद वही जीव संक्लिष्ट परिणामी होने पर उनका अजघन्य बंध करता है। इस प्रकार जघन्य और अजघन्य बन्ध के बदलते रहने से दोनों सादि और अध्रव होते हैं। इन्हीं २९ प्रकृतियों का उत्कृष्ट बन्ध संक्लिष्ट परिणामी पंचेन्द्रिय जीव करता है, और अन्तर्मुहर्त के बाद अनुत्कृष्ट बन्ध करता है, और अन्तर्मुहर्त के पश्चात् पुनः उत्कृष्ट बंध करता है। इस प्रकार बदलते रहने से ये दोनों बन्ध भी सादि और अध्रुव होते हैं। शेष ७३ प्रकृतियाँ अध्रुवबन्धिनी हैं, इसी कारण उनके जघन्यादि चारों ही स्थितिबन्ध सादि और अध्रुव होते हैं।'
१. चउभेओ अजहनो, संजलणावरणनवग-विग्घाणं ।
सेस तिगि साइ-अधुवो तह चउहा सेस पयडीणं ॥४७॥
-कर्मग्रन्थ, भाग ५
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