Book Title: Karm Vignan Part 04
Author(s): Devendramuni
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay

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Page 543
________________ स्थितिबन्ध : स्वरूप, कार्य और परिणाम ४९५ स्थितिबन्ध प्रायः संक्लेश से ही होता है और समस्त बन्धकों में मिथ्यादृष्टि के ही विशेष संक्लेश पाया जाता है। इतना विशेष है कि इन ११६ बंधयोग्य प्रकृतियों में से मनुष्यायु और तिर्यञ्चायु का उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशुद्धि से होता है। अतः इन दोनों का बन्धक संक्लिष्ट परिणामी मिथ्यादृष्टि न होकर विशुद्ध परिणामी मिथ्यादृष्टि जीव होता है। ___ यहाँ एक शंका होती है कि मनुष्यायु का बन्ध चौथे गुणस्थान तक होता है, और तिर्यञ्चायु का बन्ध होता है-दूसरे गुणस्थान तक । चूंकि तिर्यंचायु और मनुष्यायु के उत्कृष्ट स्थितिबन्ध के लिये विशुद्ध परिणामों की आवश्यकता है। और मिथ्यादृष्टि की अपेक्षा से सास्वादन-सम्यग्दृष्टि के तथा अविरत सम्यग्दृष्टि के परिणाम विशेष विशुद्ध होते हैं, इस कारण तिर्यञ्चायु का उत्कृष्ट स्थिति-बन्ध सास्वादन-सम्यग्दृष्टि के और मनुष्यायु का उत्कृष्ट स्थितिबन्ध अविरत-सम्यग्दृष्टि के होना चाहिए, मिथ्यादृष्टि के क्यों बतलाया गया? इसका समाधान यह है कि यद्यपि मिथ्यादृष्टि की अपेक्षा सास्वादन सम्यग्दृष्टि और अविरत सम्यग्दृष्टि के परिणाम विशेष विशुद्ध होते हैं, किन्तु उनसे मनुष्यायु और तिर्यञ्चायु का उत्कृष्ट स्थितिबन्ध नहीं हो सकता, क्योंकि मनुष्यायु और तिर्यंचायु की उत्कृष्ट स्थिति तीन पल्योपम है और यह उत्कृष्ट स्थिति भोगभूमिज मनुष्यों और तिर्यंचों के ही होती है। परन्तु चतुर्थ गुणस्थानवर्ती देव और नारक मनुष्यायु का.बन्ध करके भी कर्मभूमि में ही जन्म लेते हैं। तथा मनुष्य और तिर्यञ्च यदि अविरत सम्यग्दृष्टि हों तो देवायु का ही बन्ध करते हैं। अतः चतुर्थ गुणस्थान की विशुद्धि उत्कृष्ट मनुष्यायु के बन्ध का कारण नहीं हो सकती। और दूसरा गुणस्थान तभी होता है, जब जीव सम्यक्त्व का वमन करके मिथ्यात्व के अभिमुख होता है। अतः सम्यक्त्व गुण के अभिमुख मिथ्यादृष्टि की अपेक्षा से सम्यक्त्वगुण से विमुख सास्वादन सम्यग्दृष्टि के अधिक विशुद्धि नहीं हो सकती। इसलिये तिर्यञ्चायु और मनुष्यायु का उत्कृष्ट स्थितिबन्ध सास्वादन सम्यगदृष्टि के नहीं हो सकता। इस प्रकार से क्लिष्ट मिथ्यादृष्टि के ११६ प्रकृतियों का सामान्यरूप से उत्कृष्ट स्थितिबन्ध समझना चाहिए। चारों गतियों के मिथ्यादृष्टि जीव किन प्रकृतियों के उत्कृष्ट स्थितिबन्ध के स्वामी विकलत्रिक, (द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय जाति) सूक्ष्मत्रिक (सूक्ष्म, साधारण और अपर्याप्त), आयुत्रिक (नरकायु, तिर्यञ्चायु और मनुष्यायु), सुरद्विक (देवगति, देवानुपूर्वी) वैक्रियद्विक (वैक्रिय शरीर, वैक्रियानुपूर्वी), और नारकद्विक (नरकगति, नरकानुपूर्वी) इन १५ प्रकृतियों का उत्कृष्ट स्थितिबन्ध तिर्यंचों और १. कर्मग्रन्थ भा. ५ विवेचन (प. कैलाशचन्द्रजी) से, पृ. १२७ से १२८ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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