Book Title: Karm Vignan Part 04
Author(s): Devendramuni
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay

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Page 544
________________ ४९६ कर्म-विज्ञान : भाग ४ : कर्मबन्ध की सार्वभौम व्याख्या (७) मनुष्यों के तथा एकेन्द्रिय जाति, स्थावर तथा आतप नाम, इन तीन प्रकृतियों का उत्कृष्ट स्थितिबन्ध ईशान स्वर्ग तक के देवों के होता है। पूर्वोक्त १५ प्रकृतियों का उत्कृष्ट स्थितिबन्ध मनुष्यों और तिर्यंचों के ही बताया है, इसका कारण यह है कि १५ प्रकृतियों में से तिर्यञ्चाय और मनुष्याय के सिवाय शेष १३ प्रकृतियों का बन्ध देवगति और नरकगति में तो जन्म से ही नहीं होता। तथा तिर्यंचायु और मनुष्यायु की उत्कृष्ट स्थिति ३ पल्योपम है, जो भोग-भूमिजों में होती है, मगर देव और नारक मरकर भोगभूमि में जन्म नहीं ले सकते। इन १५ प्रकृतियों के सिवाय, शेष ३ प्रकृतियों का उत्कृष्ट स्थितिबन्ध ईशान देवलोक तक के देवों के बतलाया है, क्योंकि ईशान स्वर्ग से ऊपर के देव तो एकेन्द्रिय जाति में जन्म ही नहीं लेते। अतः एकेन्द्रिय के योग्य उक्त ३ प्रकृतियों का बन्ध उनके नहीं होता। तथा तिर्यञ्च और मनुथ्यों के यदि इन प्रकार के संक्लिष्ट परिणाम हों तो वे नरकगति के योग्य प्रकृतियों का ही बन्ध करते हैं। अतः उनके भी एकेन्द्रियादि तीन प्रकृतियों का उत्कृष्ट स्थितिबन्ध नहीं हो सकता। किन्तु ईशान स्वर्ग तक के देवों में यदि इस प्रकार के संक्लिष्ट परिणाम होते हैं तो वे एकेन्द्रिय के योग्य प्रकृतियों का ही बन्ध करते हैं। क्योंकि देव मरकर नरक में जन्म नहीं लेता है। अतः पूर्वोक्त १५ प्रकृतियों का तिर्यञ्च और मनुष्यगति में तथा तीन का उत्कृष्ट स्थितिबन्ध देवगति में ही जानना चाहिए।' छह प्रकृतियों के उत्कृष्ट स्थितिबन्ध के स्वामी तिर्यञ्चद्विक (तिर्यञ्चगति, तिर्यञ्चानुपूर्वी), औदारिक द्विक (औदारिक शरीर, औदारिक अंगोपांग), उद्योतनाम, और सेवार्त संहनन, इन ६ प्रकृतियों का उत्कृष्ट स्थितिबन्ध चारों गति के मिथ्यादृष्टि जीव करते हैं। आशय यह है कि उक्त ६ प्रकृतियों का उत्कृष्ट स्थितिबन्ध मनुष्य और तिर्यञ्च नहीं कर सकते, क्योंकि उक्त प्रकृतियों के बन्ध के योग्य संक्लिष्ट परिणाम होने पर मनुष्य और तिर्यंच, इन ६ प्रकृतियों की अधिक से अधिक १८ सागर-प्रमाण ही स्थिति का बन्ध करते हैं। यदि उससे अधिक संक्लेश परिणाम होते हैं तो प्रस्तुत प्रकृतियों के बन्ध का अतिक्रमण करके वे नरकगति के योग्य प्रकृतियों का बन्ध करते हैं। किन्तु देव और नारक तो उत्कृष्ट से उत्कृष्ट संक्लिष्ट परिणामों के होने पर भी तिर्यञ्चगति के योग्य प्रकृतियों का ही बन्ध करते हैं, नरकगति के योग्य प्रकृतियों का नहीं, क्योंकि देव और नारक मरकर नरक में उत्पन्न नहीं होते। अतः उत्कृष्ट संक्लेश परिणामों से युक्त देव और नारक ही प्रस्तुत ६ प्रकृतियों की २० कोटि-कोटि सागर प्रमाण उत्कृष्ट स्थिति का बन्ध करते हैं। १. विगल-सुहमाउतिगं तिविमणुया सुर-विउव्वि-निरय-दुर्ग । एगिंदि-थावरायव आईसाणा सुरुक्कोस ॥४३॥ -कर्मग्रन्थ भा. ५, विवेचन, पृ. १२८, १२९ २. वही, पृ. १३0, तिरिउरल-दुगुवजोय, छिवट्ठ सुर-निरय सेस चउगइया ॥४४॥ • Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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