Book Title: Karm Vignan Part 04
Author(s): Devendramuni
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay

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Page 514
________________ ४६६ कर्म-विज्ञान : भाग ४ : कर्मबन्ध की सार्वभौम व्याख्या (७) शुभ (प्रशस्त) कर्म या पुण्य कहलाते हैं। तथा जीव के दुःख में कारणभूत हो, वह अप्रशस्त (अशुभ) कर्म कहलाता है, अथवा बन्ध के समय अप्रशस्त परिणामों से जिन्हें अधिक रस (अनुभाग) मिलता है, वे अप्रशस्त कर्म कहलाते हैं। चार घातिकर्म अप्रशस्त हैं, पाप-प्रकृति हैं और चार अघातिकर्म प्रशस्त और अप्रशस्त दोनों प्रकार के हैं। इस पर से यह स्पष्ट प्रतीत होता है कि उत्कृष्ट और जघन्य रसबन्ध (अनुभागबन्ध) के स्वामित्व में भी बहुत तारतम्य रहेगा।' (६) सादि-अनादि, ध्रुव-अध्रुव द्वार : अनुभागबन्ध के परिप्रेक्ष्य में परिभाषा-उत्कृष्टादि रसबन्ध का पहले विच्छेद हो गया हो, अथवा वह रस बंधा ही न हो और उसका बन्ध नये सिरे से शुरू हो, वह सादिबन्ध है। अनादिकाल से. जिसका बन्ध प्रवाहरूप से चालू हो, जिसका कभी विच्छेद न हुआ हो, वह अनादिबन्ध है। जिस बन्ध का भविष्यकाल में कभी विच्छेद न हो, वह ध्रुवबन्ध है, और जिस बन्ध का विच्छेद होता हो, वह अध्रुव-बन्ध है। वैसे तो सभी कर्मों का उत्कृष्ट और जघन्य रसबन्ध अमुक मर्यादित समय तक कायम रहता है, फिर उसका प्रारम्भ नये सिरे से होता है, इस अपेक्षा से ये दोनों प्रकार के रसबन्ध सादि और अध्रुव, इन दो ही किस्म के हैं। जिन कर्मों का उत्कृष्ट, या जघन्य रस क्षपक श्रेणी या सम्यक्त्वाभिमुख आदि अवश्य कहा हो, उनका अनुत्कृष्ट और अजघन्य रसबन्ध सादि वगैरह चारों विकल्पों वाला होता है। ओघ (सामान्यरूप) से चार घातिकर्म और गोत्रकर्म का अजघन्य रसबन्ध तथा तीन अघातिकर्मों का अनुत्कृष्ट रसबन्ध चारों विकल्पों वाला है। मिथ्यात्व गुणस्थान में स्व-स्थानावस्था में जिस कर्म का उत्कृष्ट अथवा जघन्य रसबन्ध प्राप्त हो, उस कर्म का अनुत्कृष्ट और अजघन्य रसबन्ध के सादि और अध्रुव, ये दो विकल्प होते हैं। जैसे कि पातिकर्म के अनुत्कृष्ट रसबन्ध के और वेदनीय और नाम कर्म के अजघन्य रसबन्ध के सादि और अध्रुव ये दो विकल्प होते हैं। आयुष्य कर्मबन्ध तो समग्र भव में अन्तर्मुहूर्त काल का ही होता है, इस कारण उसके चारों ही प्रकार के बन्धों के सादि और अध्रुव, यों दो ही विकल्प होते हैं।२ निम्नोक्त आठ प्रकृतियों के रसबन्धचतुष्टय में सादि-आदि की प्ररूपणा ___ कर्मग्रन्थ में मूल और उत्तर प्रकृतियों में रसबन्ध के प्रस्तुत चार प्रकारों का विचार उनके सादि-अनादि तथा ध्रुव-अध्रुव भंगों के साथ किया गया है। वह इस प्रकार है-तैजसचतुष्क (तैजस, कार्मण, अगुरुलघु, निर्माण), वर्णचतुष्क (शुभवर्ण, शुभगन्ध, शुभरस और शुभस्पर्श), इन आठ प्रकृतियों का उत्कृष्ट अनुभाग (रस) १. (क) महाबंधो (प्रस्तावना) भा. ६, से पृ. १९ (ख) रसबंधो (पीठिका) से पृ. ३० २. वही (पीठिका) से, पृ. ३५-३६ । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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