Book Title: Karm Vignan Part 04
Author(s): Devendramuni
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay

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Page 512
________________ ४६४ कर्म-विज्ञान : भाग ४ : कर्मबन्ध की सार्वभौम व्याख्या (७) घातिकर्मों का जो सर्वघाती और देशघाती अनुभाग है, वह उत्कृष्ट आदि भेदों में विभाजित होकर भी उत्कृष्ट अनुभागबन्ध सर्वघाती ही होता है। अनुत्कृष्ट अनुभाग बन्ध सर्वघाती और देशघाती दोनों प्रकार का होता है। इसी प्रकार जघन्य अनुभागबन्ध देशघाती ही होता है। और अजघन्य अनुभागबन्ध सर्वघाती और देशघाती दोनों प्रकार का होता है। स्थान-संज्ञा-प्ररूपणा द्वारा चतुःस्थानों का अनुभागबन्ध-निरूपण चारों घातिकर्मों का उत्कृष्ट अनुभाग चतुःस्थानिक, त्रिस्थानिक, द्विस्थानिक और एक-स्थानिक होता है। जघन्य अनुभागबन्ध एकस्थानिक होता है और अजघन्य अनुभागबन्ध एकस्थानिक, द्विस्थानिक, त्रिस्थानिक और चतुःस्थानिक होता है। चार अघातिकर्मों में उत्कृष्ट अनुभागबन्ध चतुःस्थानिक होता है। अनुत्कृष्ट अनुभागबन्ध चतुःस्थानिक, त्रिस्थानिक, द्विस्थानिक होता है। जघन्य अनुभागबन्ध द्विस्थानिक होता है। अजघन्य अनुभागबन्ध विस्थानिक, त्रिस्थानिक और चतुःस्थानिक होता है।२ वस्तुतः अनन्त कक्षाओं का समावेश कर्मवैज्ञानिकों ने चार प्रकार में किया हैएकस्थानिक, द्विस्थानिक, त्रिस्थानिक और चतुःस्थानिक। चार घातिकर्मों का सर्वोत्कृष्ट रस चतुःस्थानिक ही होता है, और जघन्य रस एकस्थानिक होता है; जबकि अनुत्कृष्ट रस और अजघन्य रस ४-३-२-१ स्थानिक होता है। अघातिकर्मों का सर्वोत्कृष्ट रस भी चतुःस्थानिक और जघन्यरस द्विस्थानिक होता है। जबकि अनुत्कृष्ट और अजघन्य रस २-३-४ स्थानिक होता है। (३) प्रत्ययद्वार : बन्धहेतुओं की दृष्टि से अनुभागबन्ध विचार प्रत्यय का अर्थ है-हेतु। इस द्वार में अनुभाग की अपेक्षा से कर्मबन्ध के हेतुओं का विविध रूप में निरूपण है। कर्मबन्ध के मुख्य हेतु चार हैं-(१) मिथ्यात्व, (२) अविरति, (३) कषाय और (४) योग। इनके क्रमशः ५, १२, २५, और १५ भेद हैं। इस प्रकार बन्ध के कारणों के ५७ भेद हुए। इस द्वार में गुणस्थानों की अपेक्षा से बन्ध के ४ मुख्य भेदों का निरूपण किया गया है। वेदनीय कर्म को छोड़कर शेष सात कर्मों के मुख्यतया मिथ्यात्व, अविरति और कषाय, ये तीन बन्ध हेतु बताये गए हैं। पहले गुणस्थान में होने वाले बंध मुख्यतया मिथ्यात्वप्रत्ययिक हैं, दूसरे से पांचवें गुणस्थान तक होने वाला बंध मुख्यतया अविरति-प्रत्ययिक है, छठे से दसवें गुणस्थान तक होने वाला बन्ध मुख्यतया कषाय-प्रत्ययिक है। इन सात कर्मों में से आयुष्यकर्म, १. (क) महाबंधो भा. ६ (प्रस्तावना) से, पृ. १६-१७ (ख) पंचसंग्रह गा. ४८३, ४८४ २. महाबंधो, भा. ६ (प्रस्तावना) से पृ. १७ ३. रसबंधो (पीठिका) से, पृ. २९ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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