Book Title: Karm Vignan Part 04
Author(s): Devendramuni
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay

View full book text
Previous | Next

Page 522
________________ ४७४ कर्म-विज्ञान : भाग ४ : कर्मबन्ध की सार्वभौम व्याख्या (७) स्थितिबन्ध के रूप में कर्मराज द्वारा भी दण्ड-पुरस्कार की काल-सीमा का निर्धारण ठीक यही बात कर्मराज के विषय में समझिये। कर्मराज के समक्ष भी शुभाशुभकर्म वाले व्यक्ति होते हैं। पहले वह अशुभ और शुभकर्म के प्रकार या स्वभाव का निश्चय प्रकृतिबन्ध के रूप में करता है, तत्पश्चात् उन दोनों के परिमाण का निश्चय प्रदेशबन्ध के रूप में करता है, फिर उन दोनों प्रकार के व्यक्तियों के अशुभशुभ भावों की तीव्रता-मन्दता को, कषायपरिणामों की प्रशस्तता-अप्रशस्तता का निश्चय अनुभाग (रस)-बन्ध के रूप में करता है, साथ ही उसके अपराध या दोषरूप अशुभकर्म का दण्ड स्थितिबन्ध के रूप में देता है। यही प्रक्रिया शुभकर्म-पुण्यकर्म के विषय में समझनी चाहिए। पुण्यकर्मकर्ता को भी उसके तीव्र-मन्द भावों के अनुरूप दो शुभगतियों में से अमुक गति में, गमन करने अथवा उसी गति या भव में, अमुक काल तक सुखभोग करने की स्थिति बांध देता है। यही उसको पुरस्कार प्रदान करना अनुभागबन्ध के अनुसार ही प्रायः स्थितिबन्ध राजवार्तिक के अनुसार अनुभाग-बन्ध प्रधान है, वही सुख-दुःख के फलप्रदान में निमित्त होता है, उसी के अनुसार उक्त बद्धकर्म की स्थिति (काल-सीमा) का निर्धारण होता है। पंचाध्यायी (उ.) में तो स्पष्ट कहा गया है कि केवल अनुभाग-बन्ध ही बांधने रूप अपनी क्रिया में समर्थ है, बाकी के तीनों बन्ध आत्मा को बांधने रूप क्रिया में समर्थ नहीं हैं। फिर भी कहना होगा कि अनुभागबन्ध के पश्चात् यदि स्थितिबन्ध न हो तो कर्मबन्ध का विपाकरूप कार्य पूर्ण नहीं होता। जैसे-न्यायाधीश किसी अपराधी को उसके परिणामों के अनुसार सजा तो सुना दे, परन्तु वह दण्ड क्रियान्वित न हो तो अपराध के फलस्वरूप दण्ड प्रदान कार्य पूर्ण नहीं माना जाता, वैसे ही अनुभागबन्ध के द्वारा बद्धकर्म का तीव्र-मन्द रसानुसार दण्ड यो पुरस्कार के रूप में फल नियत करने पर यदि स्थितिबन्ध के द्वारा उसका अमुक कालावधिपर्यन्त दण्ड या पुरस्कार क्रियान्वित न हो तो दण्ड-पुरस्कार फल अपूर्ण माना जाता है। इसलिए कर्मविज्ञान के पुरस्कर्ताओं ने अनुभाग (रस) बन्ध के साथ-साथ स्थितिबन्ध का होना आवश्यक माना है। ___ इन दोनों बन्धों के साहचर्य का 'धवला' में एक कारण यह भी बताया गया है कि उत्कृष्ट अनुभाग को बांधने वाला जीव निश्चय से उत्कृष्ट स्थिति को ही बांधता १. अनुभागबन्धो हि प्रधानभूतः, तन्निमित्तत्वात् सुखदुःख विपाकस्य । -राजवार्तिक ६/३/७/५०७ २. (क) स्वार्थ-क्रिया-समर्थोऽत्र बन्धः स्याद् (रससंज्ञिकः), शेषवन्धत्रिकोऽप्येष न कार्यकरणक्षमः । -पंचाध्यायी (उ.) गा. ९३७ (ख) एतेषु षट्सु सत्सु जीवो ज्ञान-दर्शनावरण द्वयं भूयो बध्नाति, प्रचुरवृत्या स्थित्यनुभागी बनातीत्यर्थः । -गोम्मटसार (क) ८/३/३७९ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org


Page Navigation
1 ... 520 521 522 523 524 525 526 527 528 529 530 531 532 533 534 535 536 537 538 539 540 541 542 543 544 545 546 547 548 549 550 551 552 553 554 555 556 557 558