Book Title: Karm Vignan Part 04
Author(s): Devendramuni
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay

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Page 529
________________ स्थितिबन्ध : स्वरूप, कार्य और परिणाम ४८१ और तिर्यञ्चायु की उत्कृष्ट स्थिति तीन पल्योपम काल प्रमाण है। एकेन्द्रिय और विकलेन्द्रिय जीव आयुकर्म की उत्कृष्ट स्थिति एक पूर्व कोटि-प्रमाण' बांधते हैं। असंज्ञी पर्याप्तक जीव चारों ही आयुष्यकर्मों की उत्कृष्ट स्थिति पल्योपम के असंख्यातवें भाग प्रमाण बांधते हैं। एकेन्द्रिय और विकलेन्द्रिय जीव मरकर तिर्यञ्च गति या मनुष्यगति में ही जन्म लेते हैं। वे मर कर देव या नारक नहीं हो सकते। तथा तिर्यञ्चों और मनुष्यों में भी कर्मभूमिजों में ही जन्म लेते हैं, भोगभूमिजों में नहीं। अतः वे आयुकर्म की उत्कृष्ट स्थिति एक पूर्वकोटि-प्रमाण बांध सकते है; २ क्योंकि कर्मभूमिज मनुष्य और तिर्यञ्च की उत्कृष्ट आयु एक पूर्वकोटि की होती है, तथा असंज्ञीपंचेन्द्रिय जीव तो मर करके चारों ही गतियों में से किसी भी गति में उत्पन्न हो सकता है। अतः चारों में से वह किसी भी आयु का बन्ध कर सकता है। किन्तु वह मनुष्यों में कर्मभूमिज मनुष्य तथा तिर्यञ्चों में कर्मभूमिज तिर्यञ्च ही होता है। देवों में भवनपति और व्यन्तर ही होता है तथा नरक में पहले नरक के तीन पाथड़ों तक ही जन्म लेता है। अतः उसके आयुकर्म का बन्ध पल्योपम के असंख्यातवें भांग प्रमाण ही होता है । ३ कर्मग्रन्थ भा. ५ की उक्त गाथाओं के अनुसार कर्मप्रकृतियों की उत्कृष्ट स्थिति का बन्ध केवल संज्ञी पर्याप्तक जीव ही कर सकते हैं। अतः यह उत्कृष्ट स्थिति पर्याप्तक संज्ञी जीवों की अपेक्षा से ही बतलाई गई है। इस प्रकार बंधयोग्य १२० प्रकृतियों में से आहारक द्विक, तीर्थंकर नाम तथा आयुकर्म की ४ प्रकृतियाँ, इन ७ प्रकृतियों के सिवाय ११३ प्रकृतियों की उत्कृष्ट स्थिति बतलाई गई है। अबाधकाल : कर्म के स्थितिबन्ध से लेकर उदय तक का काल तथा स्वरूप किसी भी कर्म के उत्कृष्ट स्थितिबन्ध के बाद, जब तक कर्म उदय में नहीं आता, बाधा नहीं पहुँचाता, तब तक का काल अबाधाकाल कहलाता है। अर्थात् - जब तक १. पूर्वकोटि - प्रमाण के लिये देखें यह गाथा - पुव्वस्स उ परिमाणं, सयरी खलु होंति सय-सहस्साई । छप्पर्णा च सहस्सा बोद्धव्वा वासकोडीण ॥ - ज्योतिष्करडक अर्थात् - ७० लाख ५६ हजार करोड़ वर्ष का एक पूर्व का परिमाण जानना चाहिए। यह गाथा सर्वार्थसिद्धि, पृ. १२८ में भी उद्धृत है। २. कर्मग्रन्थ भा. ५, विवेचन (पं. कैलाशचन्द्रजी) से, गा. २९ से ३४ तक, पृ. ८९ से १०० ३. (क) कर्मग्रन्थ भा. ५, गा. ३४ के भावार्थ, विवेचन (पं. कैलाशचन्द्रजी) से, पृ. १00 (ख) तिर्यञ्चगति में तीर्थंकर नामकर्म की सत्ता का जो निषेध ( अभाव -कथन ) किया गया है, वह निकाचित तीर्थंकर नामकर्म-अर्थात् - अवश्य अनुभव में आने योग्य तीर्थंकर नामकर्म की अपेक्षा से किया है, किन्तु जिसमें उद्वर्तन और अपवर्तन हो सकता है उस तीर्थंकर नाम प्रकृति का निषेध तिर्यञ्चगति में नहीं किया है। इस दृष्टि से अन्तःकोटिकोटि सागर लम्बी स्थिति घटित हो जाती है। - कर्मग्रन्थ भा. ५, विवेचन, पृ. ९७ ४. वही भा. ५ विवेचन पृ. ९९ Jain Education International For Personal & Private Use Only . www.jainelibrary.org

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