Book Title: Karm Vignan Part 04
Author(s): Devendramuni
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay

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Page 539
________________ स्थितिबन्ध : स्वरूप, कार्य और परिणाम ४९१ " एकेन्द्रिय जीव के उत्कृष्ट स्थितिबन्ध से पच्चीस गुणा उत्कृष्ट स्थितिबन्ध द्वीन्द्रिय जीवों के, पचास गुणा उत्कृष्ट स्थितिबन्ध त्रीन्द्रिय जीवों के सौ गुणा उत्कृष्ट स्थितिबन्ध चतुरिन्द्रिय जीवों के, तथा एक हजार गुणा उत्कृष्ट स्थितिबन्ध असंज्ञीपंचेन्द्रिय जीवों के होता है। अपने-अपने उत्कृष्ट स्थितिबन्ध में से पल्य का संख्यातवाँ भाग कम करने पर जघन्य स्थितिबन्ध का प्रमाण आता है । ' ८५ प्रकृतियों का उत्कृष्ट और जघन्य स्थितिबन्ध पहले ८५ प्रकृतियों के जघन्य स्थितिबन्ध को बतलाने हेतु उन प्रकृतियों के वर्गों की उत्कृष्ट स्थितियों में मिथ्यात्व की उत्कृष्ट स्थिति से भाग देने का जो विधान किया है, एकेन्द्रिय जीव के उत्तरप्रकृतियों के उत्कृष्ट स्थितिबन्ध का प्रमाण निकालने के लिए वही विधान काम में लाया जाता है। तदनुसार विवक्षित प्रकृति की पूर्वोक्त उत्कृष्ट स्थिति में मिथ्यात्व की उत्कृष्ट स्थिति का भाग देने पर जितना लब्ध आता है, केन्द्रिय जीव के उस प्रकृति का उतना ही उत्कृष्ट स्थितिबन्ध होता है। जैसे- पांच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, दो वेदनीय, और पांच अन्तराय, इन इक्कीस प्रकृतियों का उत्कृष्ट स्थितिबन्ध एकेन्द्रिय जीव के ३/७ सागर प्रमाण होता है, क्योंकि इन प्रकृतियों के वर्गों की उत्कृष्ट स्थिति ३० कोटि-कोटि सागर है। उसमें मिथ्यात्व की उत्कृष्ट स्थिति से भाग देने पर ३/७ सागर लब्ध होता है। इसी क्रम से अन्य प्रकृतियों की स्थिति निकालने पर, मिथ्यात्व की एक सागर, सोलह कषायों की ४/७ सागर, नौ नोकषायों की २ / ७ सागर, तथा वैक्रियषट्क, आहारकद्विक और तीर्थंकरनाम को छोड़कर, एकेन्द्रिय के बंधने योग्य नामकर्म की शेष ५८ प्रकृतियों की और दोनों गोत्रों की २/७ सागर प्रमाण उत्कृष्ट स्थिति आती है। इस उत्कृष्ट स्थितिबन्ध में से पल्य का असंख्यातवाँ भाग कम कर देने पर एकेन्द्रिय जीव के जघन्य स्थितिबन्ध का प्रमाण आता है। अर्थात्-प्रत्येक प्रकृति की ३ / ७ सागर इत्यादि जो उत्कृष्ट स्थिति निकाली है, उसमें से पल्य का असंख्यतवाँ भाग कम कर देने पर वही उस प्रकृति की जघन्य स्थिति हो जाती है । २ द्वन्द्रियादि का उत्कृष्ट तथा जघन्य स्थितिबन्ध - प्रमाण कर्मग्रन्थ की गा. ३७ के पूर्वार्द्ध द्वारा एकेन्द्रिय जीव की अपेक्षा से स्थितिबन्ध का उत्कृष्ट जघन्य परिमाण बतलाया, किन्तु इसके उत्तरार्द्ध में द्वीन्द्रियादि जीवों की अपेक्षा से उनका स्थितिबन्ध प्रमाण बतलाया गया है। जिसका आशय यह है कि एकेन्द्रिय जीव के ३/७ सागर इत्यादि जो उत्कृष्ट स्थितिबन्ध होता है, उसे पच्चीस से गुणा करने पर द्वीन्द्रिय जीव के उत्कृष्ट स्थितिबन्ध का प्रमाण आता है । इस दृष्टि से एकेन्द्रिय जीव के मिथ्यात्व की उत्कृष्ट स्थिति एक सागर प्रमाण बंधती है, तो द्वीन्द्रिय १. कर्मग्रन्थ भा. ५ गा. ३७ विवेचन (पं. कैलाशचन्द्रजी) से पृ. १११, ११२ २. कर्मग्रन्थ भा. ५ गा. ३७, विवेचन (पं. कैलाशचन्द्रजी) से पृ. ११४, ११५ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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