Book Title: Karm Vignan Part 04
Author(s): Devendramuni
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay

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Page 534
________________ ४८६ कर्म-विज्ञान : भाग ४ : कर्मबन्ध की सार्वभौम व्याख्या (७) यह अबाधा अनुभूयमान भव-सम्बन्धी आयु में ही पंचसंग्रह के अनुसार एक बात और ध्यान में ले लेनी चाहिए कि जिन तिर्यंचों और मनुष्यों की आयु एक पूर्वकोटि होती है, उनकी अपेक्षा से ही एक पूर्वकोटि के त्रिभाग प्रमाण अबाधा बतलाई है। तथा यह अबाधा अनुभूयमान भवसम्बन्धी आयु में ही जाननी चाहिए, परभव-सम्बन्धी आयु में नहीं, क्योंकि परभव सम्बन्धी आयु की दल-रचना प्रथम समय में ही हो जाती है, उसमें अबाधाकाल सम्मिलित नहीं है। ___ अतः एक पूर्वकोटि आयु वाले तिर्यञ्चों और मनुष्यों की परभव की आयु की उत्कृष्ट अबाधा पूर्वकोटि के विभाग प्रमाण होती है। शेष देव, नारक और भोगभूमियों के परभव की आयु की अबाधा छह मास होती है। तथा एकेन्द्रिय और विकलेन्द्रिय जीवों के अपनी-अपनी आयु के त्रिभाग-प्रमाण उत्कृष्ट अबाधा होती है। कुछ आचार्य । भोगभूमियों के परभव की आयु की अबाधा पल्य के असंख्यातवें प्रमाण कहते हैं। . निरुपक्रमी और सोपक्रमी आयु द्वारा परभवायुर्बन्ध निष्कर्ष. यह है कि निरुपक्रमी आयु वाले जीव आयु का त्रिभाग शेष रहने पर परभव की आयु बांधते हैं, जबकि सोपक्रमी आयु वाले जीव अपनी आयु के त्रिभाग में, अथवा नौवें भाग में या सत्ताईसवें भाग में परभव की आयु बांधते हैं। यदि इन विभागों में भी आयुबन्ध नहीं कर पाते तो अन्तिम अन्तर्मुहूर्त में परभव की अयु बांधते हैं। उत्तरकर्मप्रकृतियों का जघन्य स्थितिबन्ध अठारह प्रकृतियों की जघन्य स्थिति __संज्वलन लोभ, पांच अन्तराय, पांच ज्ञानावरण और चार दर्शनावरणों का जघन्य स्थितिबन्ध अन्तर्मुहूर्त प्रमाण होता है। यश कीर्ति और उच्चगोत्र का जघन्य स्थितिबन्ध आठ मुहूर्त प्रमाण होता है और सातावेदनीय का जघन्य स्थितिबन्ध बारह मुहूर्त प्रमाण होता है। जघन्य स्थितिबन्ध के सम्बन्ध में सामान्य नियम यह है कि यह स्थितिबन्ध अपनेअपने बन्ध-व्युच्छित्ति के समय में, अर्थात्-इन १८ प्रकृतियों के बन्ध के अन्तकाल आने के समय में होता है। इस दृष्टि से संज्वलन लोभ का जघन्य-स्थितिबन्ध नौवें १. (क) कर्मग्रन्थ भा. ५ विवेचन (पं. कैलाशचन्द्रजी) से, पृ. १०१ (ख) वही, टिप्पण, पृ. १०२ २. बंधति देव-नारय-असंख-नर-तिरि छमास-सेसाऊ । परभवियाउ सेसा निरुवक्कम-तिभाग-सेसाऊ ॥३०१॥ सोवक्कमाउया पुण सेस-तिभागे अहव नवमभागे । सत्तावीसइमे वा अंतमुहुत्तंतिमेवा वि ॥३०२॥-संग्रहणीसूत्र (चन्द्रसूरिरचित) Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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