Book Title: Karm Vignan Part 04
Author(s): Devendramuni
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay

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Page 535
________________ स्थितिबन्ध : स्वरूप, कार्य और परिणाम ४८७ गुणस्थान में, पांच अन्तराय, ५ ज्ञानावरण चार दर्शनावरण यश कीर्ति और उच्चगोत्र का जघन्यं स्थितिबन्ध दसवें गुणस्थान के अन्तिम समय में होता है। सातावेदनीय की बारह मुहूर्त प्रमाण जो जघन्य स्थिति बताई गई है, वह सकषाय बन्ध की अपेक्षा से समझनी चाहिए। अकषाय बन्ध की अपेक्षा से तो उसकी जघन्य स्थिति मात्र दो समय की होती है। यह पहले कह चुके हैं। चार उत्तर प्रकृतियों की जघन्य स्थिति संज्वलन क्रोध की दो मास, संज्वलन मान की एक मास, संज्वलन माया की एक पक्ष और पुरुषवेद की चार मास की जघन्य स्थिति है। तथा शेष प्रकृतियों की उत्कृष्ट स्थिति में मिथ्यात्वमोहनीय की उत्कृष्ट स्थिति ७० कोटि-कोटि का भाग देने पर जो लब्ध (भाज्यफल) आता है, वही उनकी जघन्य स्थिति जाननी चाहिए। यहाँ यह समझ लेना चाहिए कि पूर्वोक्त संज्वलन क्रोधादि चारों की प्रकृतियों का जघन्य स्थितिबन्ध अपनी-अपनी बन्ध-व्युच्छित्ति-काल में ही होता है। अर्थात-उक्त चारों प्रकृतियों का जघन्य स्थितिबन्ध नौवें गुणस्थान में होता है। आयुकर्म की चार प्रकृतियों की जघन्य स्थिति देवायु और नरकायु की जघन्य स्थिति दस हजार वर्ष है और शेष मनुष्यायु और तिर्यञ्चायु की जघन्य स्थिति क्षुद्रभव प्रमाण है। किन्हीं आचार्यों के मत से तीर्थकरनाम की जघन्य स्थिति देवायु के समान, अर्थात्-दस हजार वर्ष है और आहारक-द्विक की अन्तर्मुहूर्त प्रमाण है। तीर्थकर नामादि तीन प्रकृतियों की जघन्य स्थिति . वैसे पहले बता चुके हैं कि तीर्थंकरनाम और आहारकद्विक की जितनी उत्कृष्ट स्थिति है, यही संख्यातगुणीहीन उनकी जघन्य स्थिति जाननी चाहिए।२ वैक्रियषट्क की उत्कृष्ट और जघन्य स्थिति · पंचसंग्रह के अनुसार-वैक्रियषट्क की बीस कोटि-कोटि सागर प्रमाण उत्कृष्ट स्थिति में मिथ्यात्व की उत्कृष्ट स्थिति ७0 कोटि-कोटि सागर का भाग देने से जो १. (क) कर्मग्रन्थ भा. ५ गा. ३५ विवेचन (पं. कैलाशचन्द्रजी) से, पृ. १०५, १०६ (ख) लहुठिईबंधो संजलण-लोहे, पणविंग्य-नाण-दंसेसु । . भिन्नमुहत्तं ते अट्ठ जसुच्चे बारस य साए ॥३५॥ (ग) दो इग-मासो पक्खो, संजलणतिगे पुमट्ठ-वरिसाणि । ___सेसाणुक्कोसाउ, मिच्छत्त-ठिईए ज लद्धं ॥३६॥ -पंचम कर्मग्रन्थ २. (क) सुरनरयाउ समा-दस-सहस्स सेसाउ खुड्डभवं ॥३८॥ -वही, भाग ५ पृ. ११७ (ख) गुरु कोडि-कोडि अंतो तित्थाहाराण भिन्नमुहु बाहा । - लहुठिई संखगुणूणा नरतिरियाणाउ पल्लतिगं ॥३३॥ -वही, भा. ५ विवेचन पृ. ९४ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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