________________
स्थितिबन्ध : स्वरूप, कार्य और परिणाम ४७९ आयुकर्म के सिवाय सात मूल प्रकृतियों की
उत्कृष्ट स्थिति सागरोपम प्रमाण द्वारा मूल प्रकृतियों की जो उत्कृष्ट स्थिति बतलाई गई है, वह स्थिति इतनी अधिक है कि संख्या-प्रमाण के द्वारा उसका कालमान बतलाना अशक्य-सा है। अतः उसे उपमा-प्रमाण काल के द्वारा बताया गया है। उपमा प्रमाण का ही एक भेद सागरोपम है। कोटाकोटि या कोटिकोटि का अर्थ है-एक करोड़ को एक करोड़ से गुणा करने पर जो महाराशि आती है, उसे एक कोटिकोटि या कोटाकोटि अथवा कोड़ाकोड़ी कहते हैं। आठ कर्मों में एक आयुष्यकर्म ही ऐसा है, जिसकी स्थिति कोटिकोटि सागरोपमों में नहीं होती, वह ३३ सागरोपम है।' इतनी सुदीर्घ स्थिति से यह स्पष्ट है कि एक भव में बांधा हुआ कर्म अनेक भवों तक बना रह सकता है।
- कर्मों की उत्तरप्रकृतियों की उत्कृष्ट स्थिति पांच अन्तराय, पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण और असातावेदनीय की उत्कृष्ट स्थिति तीस कोटि-कोटि सागरोपम प्रमाण है। सूक्ष्म-त्रिक (सूक्ष्म, अपर्याप्त और साधारण) नामकर्म की, तथा विकलत्रिक (द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय) जातिनामकर्म की उत्कृष्ट स्थिति अठारह कोटिकोटि सागर प्रमाण है। तथा प्रथम संस्थान, प्रथम संहनन की उत्कृष्ट स्थिति दस कोटि-कोटि सागर है। और आगे के प्रत्येक संस्थान और प्रत्येक संहनन की स्थिति में दो-दो सागर की वृद्धि होती जाती है। अर्थात-दूसरे संस्थान और दूसरे संहनन की उत्कृष्ट स्थिति बारह कोटिकोटि सागर प्रमाण है; तीसरे संस्थान और तीसरे संहनन की चौदह, चौथे की सोलह, पांचवें की
अठारह और छठे की बीस कोटिकोटि सागर प्रमाण उत्कृष्ट स्थिति जाननी चाहिए।२ • वास्तव में उत्तर प्रकृतियों की स्थिति से मूल प्रकृतियों की स्थिति कोई पृथक् नहीं होती, किन्तु उत्तर-प्रकृतियों की स्थिति में से जो स्थिति सबसे अधिक होती है, वही मूल प्रकृति की उत्कृष्ट स्थिति मान ली गई है। जैसे-ज्ञानावरण, दर्शनावरण तथा अन्तराय कर्म की उत्तरप्रकृतियों की भी उतनी उत्कृष्ट स्थिति है, जितनी मूलकर्म प्रकृतियों.की बतला चुके हैं। किन्तु नामकर्म की उत्तरप्रकृतियों की उत्कृष्ट स्थिति में अधिक विषमता पाई जाती है। जैसे कि अभी-अभी प्रथम संस्थान और प्रथम संघनन की उत्कृष्ट स्थिति दस कोटिकोटि सागर की है, और उत्तरोत्तर दो-दो कोटिकोटि सागर की वृद्धि होते-होते अन्तिम संस्थान और अन्तिम संहनन की उत्कृष्ट स्थिति बीस कोटिकोटि सागर हो जाती है। इस विषमता का कारण है, कषायों की न्यूनाधिकता। जब जीव के भाव अधिक संक्लिष्ट होते हैं, तब स्थितिबन्ध भी अधिक १. देखें, कर्मग्रन्थ भा. ५ की गाथा ६५ में पल्योपम और सागरोपम कालप्रमाण का विश्लेषण, पृ.
२६० से.२७१ तक। २. कर्मग्रन्थ भा. ५ (पं. कैलाशचन्द्रजी) गा. २८ का विवेचन, पृ. ८९ .
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org