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कर्म-विज्ञान : भाग ४ : कर्मबन्ध की सार्वभौम व्याख्या (७)
द्वेष भी कषाय के अन्तर्गत) हैं। कषाय का उदय दसवें गुणस्थान तक ही रहता है। इसलिए दसवें गुणस्थान तक के जीव सकषाय कहलाते हैं और उपशान्तमोह, क्षीणमोह, सयोगीकेवली और अयोगीकेवली कहलाते हैं - अकषाय । तत्त्वार्थसूत्र में कर्मों की मूल प्रकृति के उत्कृष्ट और जघन्य स्थिति का निर्देश सकषाय- साम्परायिक क्रिया की अपेक्षा से किया गया है। मूल आठ कर्मों में एक वेदनीय कर्म ही ऐसा है, जो अकषाय जीवों के भी बंधता है। वह सातावेदनीय का बन्ध भी नाममात्र का है, क्योंकि वह कषाय-रहित उच्च गुणस्थानवर्ती जीव के ईर्यापथिक क्रिया की अपेक्षा पहले समय में बँधता है, दूसरे समय में उसकी निर्जरा हो जाती है। यानी उनके वह सातावेदनीय का बन्ध मात्र दो समय (अत्यन्त सूक्ष्म क्षण ) का है। यह स्थिति केवल तेरहवें सयोगी केवली गुणस्थान में ही होती है, अन्यत्र कहीं भी ऐसा सम्भव नहीं है । १. . कर्मवैज्ञानिक स्थितिबन्ध में अध्यवसाय को मुख्य कारण मानते हैं। आत्मा जिस प्रकार के शुभ या अशुभ तीव्र, मन्द या मध्यम अध्यवसाय में प्रवृत्त है, तदनुसार ही स्थितिबन्ध होता है। २
मूलकर्मों की उत्कृष्ट और जघन्य स्थिति
उत्तराध्ययनसूत्र के ३३वें अध्ययन, तत्त्वार्थसूत्र के आठवें अध्याय तथा कर्मग्रन्थ के पंचम भाग के अनुसार ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, वेदनीय और अन्तराय की उत्कृष्ट स्थिति तीस कोटाकोटी सागरोपम की होती है, मोहनीय कर्म की उत्कृष्ट स्थिति ७० कोटाकोटी सागरोपम की होती है। नाम और गोत्रकर्म की उत्कृष्ट स्थिति बीस कोटाकोटी सागरोपम की होती है। तथा आयुष्यकर्म की उत्कृष्ट स्थिति तेतीस सागरोपम की होती है। ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय, अन्तराय तथा आयुष्यकर्म की जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त की है, वेदनीय कर्म की जघन्य स्थिति (अकषाय-सयोगीकेवली को छोड़कर) १२ मुहूर्त की है, नाम और गोत्रकर्म की जघन्य स्थिति प्रत्येक की ८ मुहूर्त की है । ३
१. (क) तत्त्वार्थ विवेचन (उपाध्याय केवलमुनि) से, पृ. ३९५ (ख) कर्मग्रन्थ भा. ५, विवेचन (पं. कैलाशचन्द्र जी) से, पृ. ८९ (ग) सकषायाकषाययोः साम्परायिकैर्यापथयोः ।
(घ) मुत्तुं अकसायठि ।
२. (क) आत्मतत्वविचार (प्र. विजयलक्ष्मणसूरिजी ) से, पृ. ३४९
(ख) वही, पृ. ३५०
३. (क) कर्मग्रन्थ भा. ५, गा. २६-२७
(ख) तत्त्वार्थसूत्र अ. ८/सू. १५ से २१ तक
(ग) उत्तराध्ययनसूत्र अ. ३३, गा. १९ से २२ तक
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- तत्त्वार्यसूत्र ६/५
-गा. २७
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