Book Title: Karm Vignan Part 04
Author(s): Devendramuni
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay

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Page 525
________________ स्थितिबन्ध : स्वरूप, कार्य और परिणाम ४७७ पश्चात् उत्तरोत्तर ८४ लाख गुणा करने से त्रुटित, अडडांग, अडड, अववांग, अवव, हूहूअंग, हूहू, उत्पलांग, उत्पल, पद्मांग, पद्म, नलिनांग, नलिन, अर्थ-निपूरांग, अर्थनिपूर आदि से लेकर शीर्ष प्रहेलिका-पर्यन्त गणित (संख्या) विधि का क्षेत्र है। अर्थात्-शीर्षप्रहेलिका तक उत्तरोत्तर ८४ लाख गुणा करने से १९४ अंक प्रमाण, जो राशि बनती है, वहीं तक गणित की सीमा है। उससे आगे की जो कालावधि वर्षों के रूप में नहीं गिनी जा सकती, उसके लिए उपमा-प्रमाण का सहारा लिया जाता है। अर्थात्-जब संख्यात (संख्येय) की गणना रुक जाती है, तब असंख्यात (असंख्येय) की गणना शुरू होती है। पल्योपम और सागरोपम उसी जाति के कालमान (उपमाप्रमाण) हैं। पल्योपम और सागरोपम कालमान पल्योपम और सागरोपम ये दोनों उपमा-प्रमाण हैं। कर्मों की उत्कृष्ट स्थिति पल्योपम और सागरोपमों में बताई गई है। इसलिए स्थितिबन्ध के सन्दर्भ में इन दोनों का तात्पर्य समझना आवश्यक है। संक्षेप में पल्योपम का अर्थ यह है-अनाज वगैरह भरने के गोलाकार स्थान को पल्य कहते हैं। समय की जिस लम्बी अवधि को पल्य की उपमा दी जाती है, उसे काल-पल्योपम कहते हैं। सामान्यतया एक योजन लम्बा, एक एक योजन चौड़ा और एक योजन गहरा गोल पल्य (गड्ढा), जिसकी परिधि ३ है योजन हो, एक दिन से लेकर सात दिन तक के (देवकुरु या उत्तरकुरु क्षेत्र के) मनुष्यों के केशानों (जिनका दूसरा टुकड़ा न हो सके इतने सूक्ष्म) को इतना ठसाठस भरे किं न उन्हें आग जला सके, न वायु उड़ा सके और न जल का ही उसमें प्रवेश हो सके, इतना ही नहीं, चक्रवर्ती की सेना भी उस पर से कूच कर जाए तो भी दबे नहीं। फिर उस पल्य में से १00-१00 वर्षों में एक-एक टुकड़ा (खण्ड) निकाले जाने पर जितने सौ वर्षों में वह गड्ढा खाली हो जाए उतने काल को पल्योपम कहते हैं। ऐसे १० कोटिकोटि (१0 करोड़ x १0 करोड़) पल्योपम काल को एक सागरोपम कहते हैं। यह बादर अद्धा पल्योपम और सागरोपम हैं। इनसे देवादि चारों की आयुष्य की स्थिति का काल नापा जाता है। इनके भेद-प्रभेदों का वर्णन पंचम कर्मग्रन्थ में विस्तार से किया गया है।२ स्थितिबन्ध का मुख्य कारण : कषाय स्थितिबन्ध का प्रमुख कारण कषाय (क्रोध, मान, माया, लोभ, फिर इनके चार-चार भेद होने से षोडश-प्रकारात्मक कषाय, साथ ही नौ नोकषाय भी; राग और १. (क) कर्मग्रन्थ भा. ५, गा. ८५ का विवेचन (पं. कैलाशचन्द्रजी) से, पृ. २६१ से २७१ . ..(ख) आत्मतत्त्व विचार से, पृ. ३५०-३५१ २. (क) कर्मग्रन्थ भाग ५, गा. ८५ के विवेचन से सारांश ग्रहण (ख) आत्मतत्त्वविचार से, पृ. ३६३ (ग) कर्मग्रन्थ भा. ५ में ८५वी गाथा के विवेचन में पल्योपमादि के प्रकार का विवरण । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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