Book Title: Karm Vignan Part 04
Author(s): Devendramuni
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay

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Page 504
________________ ४५६ कर्म-विज्ञान : भाग ४ : कर्मबन्ध की सार्वभौम व्याख्या (७) लेश्या परिणाम के कारण अनेक प्रकार की तरतमताएँ, जो रसबन्ध में कारण हैं, उन्हें केवलज्ञानी जान सकते हैं। अध्यवसाय के कारण हुए रसबंध के फलस्वरूप स्थिति और रस का निश्चय । इस प्रकार के अध्यवसाय के कारण बंधने वाले कर्म-रस का गणित ऐसा है कि संक्लेश (कषाय की चढ़ती मात्रा) जैसे-जैसे अधिक होगा, वैसे-वैसे अशुभकर्म की स्थिति लम्बी और रस तीव्र (उत्कृष्ट) बंधता है। तथैव शुभ प्रकृति की स्थिति लम्बी और रस मंद बंधता है। इसके विपरीत विशुद्धि (कषाय की उतरती मात्रा) जैसे-जैसे अधिक होगी, वैसे-वैसे शुभकर्म की स्थिति कम और रस तीव्र बंधेगा। अशुभकर्म की स्थिति और रस दोनों का कम बंध होगा। यहाँ इतना अवश्य ध्यान रखना है कि शुभ आयुष्य के सिवाय बाकी के शुभकर्मों की भी लम्बी (दीर्घकालिक) स्थिति अशुभ हैं, क्योंकि वह संक्लेश से बद्ध है। शुभाशुभ कर्म के रस की अनन्त कक्षाएँ हैं। परन्तु ज्ञानी पुरुषों ने अनन्त रसकक्षाओं का समावेश स्थूलरूप से पूर्वोक्त ४ कक्षाओं में ही कर दिया है। उन्हें. ही अनुक्रम से एकस्थानिक रस, द्विस्थानिक रस, त्रिस्थानिक रस और चतुःस्थानिक रस कहते हैं। तीव्र और मन्द अनुभागबन्ध के चार-चार भेदों के कारणों का निर्देश पहले यह बताया जा चुका है कि अनुभाग-बन्ध का कारण कषाय है। और कषायों की तरतमता के कारण तीव्र, तीव्रतर आदि तथा मंद, मन्दतर आदि चार-चार भेद अनुभागबन्ध के ही हैं। इन भेदों का कारण भी काषायिक परिणामों की अवस्थाएँ ही हैं। कषाय के चार भेद प्रसिद्ध हैं-क्रोध, मान, माया, लोभ। इनमें से प्रत्येक की चार-चर अवस्थाएँ होती हैं। क्रोधकषाय की चार अवस्थाएं होती हैं, इसी प्रकार मानकषाय, मायाकषाय और लोभकषाय की भी चार-चार अवस्थाएँ होती हैं। जिनके नाम क्रमशः अनन्तानुबन्धी कषाय, अप्रत्याख्यानावरण कषाय, प्रत्याख्यानावरण कषाय और संज्वलन कषाय हैं। शास्त्रकारों ने इन चारों ही प्रकार के कषायों के लिए चार उपमाएँ दी हैं। कर्मग्रन्थ आदि में जिनका उल्लेख किया गया है। अनन्तानुबन्धी कषाय को पर्वत की रेखा की उपमा दी गई है। जैसे-पर्वत में पड़ी दरार सैकड़ों वर्ष बीत जाने पर भी नहीं मिटती, वैसे ही अनन्तानुबन्धी कषाय की वासना भी असंख्य भवों तक बनी रहती है। इस कषाय के उदय से जीव के परिणाम अत्यन्त संक्लिष्ट होते हैं और पाप प्रकृतियों का अत्यन्त तीव्ररूप चतुःस्थानिक अनुभागबन्ध करता है। किन्तु शुभप्रकृतियों में केवल मधुरतररूप द्विस्थानिक ही रसबन्ध करता है, क्योंकि शुभ प्रकृतियों में एकस्थानिक रसबन्ध नहीं होता। १. रसबंधो (पीठिका) से पृ. २४-२५ २. वही, पृ. २५ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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