Book Title: Karm Vignan Part 04
Author(s): Devendramuni
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay

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Page 509
________________ रसबन्ध बनाम अनुभागबन्ध : स्वरूप और परिणाम ४६१ चाहिए-नीम और ईख का एक-एक रस को लेकर उन्हें आग पर उबाले जाने पर वे जल कर आधा-आधा सेर रह जाएँ तो द्विस्थानिक रस कहा जाएगा, क्योंकि स्वाभाविक कटु या मधुर रस से दोनों के उस पके हुए रस में दूनी कड़वाहट और दूनी मधुरता आ गई। वही रस उबलने पर एक सेर का तिहाई रह जाए तो त्रिस्थानिक रस समझना चाहिए, क्योंकि उसमें पहले के स्वाभाविक रस से तिगुनी कटुता और मधुरता आ गई है। वही रस जब उबलने पर एक सेर का पावभर रह जाए तो उसे चतुःस्थानिक रस समझना चाहिए, क्योंकि पहले के स्वाभाविक रस से उसमें चार गुनी कटुकता और मधुरता आ जाती है।' ___ अशुभ-शुभप्रकृतियों में कषाय की तीव्रता-मन्दता के अनुसार उत्तरोत्तर अनन्तगुने से रस-स्पर्द्धक आशय यह हैं कि कषाय की तीव्रता बढ़ने से अशुभ (पाप) प्रकृतियों में एक-स्थानिक से लेकर चतुःस्थानिक पर्यन्त रस पाया जाता है, इसके विपरीत कषाय की मन्दता के बढ़ने से शुभ (पुण्य) प्रकृतियों में एक-स्थानिक को छोड़कर विस्थानिक से लेकर चतुःस्थानिक पर्यन्त रस पाया जाता है। जैसे-नीम के एकस्थानिक रस से द्विस्थानिक रस में दुगुनी, त्रिस्थानिक रस में तिगुनी और चतुःस्थानिक रस में चौगुनी कड़वाहट होती है, उसी प्रकार अशुभ प्रकृतियों के जो स्पर्द्धक सबसे जघन्य (अल्प) रस वाले होते हैं, वे एकस्थानिक कटुरस वाले हैं। उनसे द्विस्थानिक स्पर्द्धकों में अनन्तगुणा कटुतर रस, उनसे त्रिस्थानिक स्पर्द्धकों में अनन्तगुणा कटुतमरस, तथा उनसे चतुःस्थानिक स्पर्द्धकों में अनन्तगुणा अत्यन्त कटु रस होता है। इसके विपरीत शुभ प्रकृतियों में इक्षु के एक-द्वि-त्रि-चतुःस्थानिक रस के समान मधुर रस स्वाभाविक मधुर, मधुरतर, मधुरतम तथा अत्यन्त मधुर होता है। अर्थात्-शुभ प्रकृतियों में एक-स्थानिक स्वाभाविक रस होता है, उनसे विस्थानिक स्पर्द्धकों में अनन्तगुणा मधुरतर रस होता है, उनसे त्रिस्थानिक स्पर्द्धकों में अनन्तगुणा मधुरतम और उनसे चतुःस्थानिक स्पर्द्धकों में अनन्तगुणा अत्यन्त मधुर रस होता है।२ । पंचसंग्रह में अशुभ-शुभ प्रकृतियों के रस की उपमाएँ ' 'पंचसंग्रह' (प्रा.) में अशुभ-प्रकृतियों के एक स्थानिक रस को घोषातकी नीम आदि की और शुभ-प्रकृतियों के रस को क्षीर-खांड वगैरह की उपमा दी गई है। बाकी १. (क) वही, भा. ५, पृ. १७९ (ख) कर्मग्रन्थ भा. ५ (मरुधरकेसरी), पृ. २३४-२३५ . (ग) निबुच्छुरसो सहजो दु-ति-चउभाग कढिक्कभागतो । इगठाणाई असुहो असुहाण, सुहो सुहाणं तु ॥६५॥ -कर्मग्रन्थ भा. ५ गा. ६५ २. कर्मग्रन्थ भा. ५ गा. ६५ की व्याख्या (पं. कैलाशचन्द्रजी) से, पृ. १७८-१७९ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org


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