Book Title: Karm Vignan Part 04
Author(s): Devendramuni
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay

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Page 508
________________ ४६० कर्म-विज्ञान : भाग ४ : कर्मबन्ध की सार्वभौम व्याख्या (७) उत्कटता वाले जीव के होता है, तथा जो ६२ अप्रशस्त प्रकृतियाँ हैं, उनका उत्कृष्ट अनुभागबन्ध उत्कृष्ट संक्लेश वाले मिथ्यादृष्टि जीव के होता है।' अशुभ और शुभ प्रकृतियों का कटु-मधुर रस कैसे-कैसे चार प्रकार का होता पहले अशुभ-प्रकृतियों को नीम की तथा शुभ-प्रकृतियों को इक्षुरस की उपमा दी गई थी, अब इन दोनों प्रकृतियों का रस कैसा कैसा होता है, इसे कर्मग्रन्थ में स्पष्ट रूप से प्रतिपादित किया गया है। जैसे-नीम और ईख के रस में स्वाभाविक रूप से एकस्थानिक ही रस रहता है, अर्थात्-उनमें नम्बर एक की कटुकता और मधुरता रहती है। किन्तु आग पर रखकर उसको दो-तीन-चार भाग में उबाले जाने (काढ़ा बनाये जाने) पर उसमें विस्थानिक, त्रिस्थानिक और चतुःस्थानिक रस हो जाता है। अर्थात्-पहले से दुगुना, तिगुना, चौगुना कडुआपन अथवा मिठास आ जाता है। इसी प्रकार अशुभ-प्रकृतियों में संक्लेश के बढ़ने पर अशुभ, अशुभतर, अशुभतम और अत्यन्त अशुभ तथा शुभ-प्रकृतियों में विशुद्धि के बढ़ने पर शुभ, शुभतर, शुभतम और अत्यन्त शुभ रस पाया जाता है।२ एकस्थानिक से चतुःस्थानिक रस तक की प्रक्रिया ___नीम और ईख, इन दोनों रस के कडुएपन और मीठेपन की उत्तरोत्तर वृद्धि होने से उनका चार-चार प्रकार का रस (Taste) बन जाता है, इसी प्रकार अशुभ और शुभ प्रकृतियों के रस में भी उत्तरोत्तर वृद्धि होने से क्रमशः चार-चार प्रकार का दुःखदायक तथा सुखदायक बन जाता है। अर्थात्-अशुभ या शुभ कर्म-प्रकृतियों में वैसी-वैसी अनिष्ट-इष्ट-फलदायक शक्ति स्वतः हो जाती हैं। इसका विशेष स्पष्टीकरण कर्मग्रन्थ में इस प्रकार किया गया है-जैसे-नीम का रस स्वभाव से ही कटु होता है, वह पीने वाले के मुख को एकदम कडुआ कर देता है, उसी प्रकार अशुभप्रकृतियों का रस भी अनिष्ट और दुःखदायक होता है; उसी प्रकार जैसे-ईख का रस मीठा और सुखदायक होता है, उसी तरह शुभ-प्रकृतियों का रस भी जीव को इष्ट एवं सुखदायक प्रतीत होता है। अतः नीम और ईख के पेरने पर उनमें से निकलने वाला स्वाभाविक रस स्वभावतः कडुआ और मीठा होता है। रस में इस प्रकार की स्वाभाविक कटुता या मधुरता को एकस्थानिक रस समझना चाहिए। इस स्वाभाविक एक-स्थानिक रस के द्वि-स्थानिक, त्रि-स्थानिक और चतुःस्थानिक प्रकारों को क्रमशः इस प्रकार समझना १. सुहपयडीण विसोही तिव्व असुहाण संकिलेसेण । विवरीए दु जहण्णो अणुभाओ सव्य-पयडीणं ॥ बायाल पि पसत्था विसोहि-गुण-उक्कडस्स तिव्वाओ । वासीय अप्पसत्था मिच्छुक्कड-संकलिट्ठस्स ॥ -पंचसंग्रह ४/४५१, ४५२ २. कर्मग्रन्थ भा. ५ (पं. कैलाशचन्द्रजी) से, पृ. १७८ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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