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रसबन्ध बनाम अनुभागबन्ध : स्वरूप और परिणाम ४५९ उतरना भी होता है। तथा उपशम श्रेणी चढ़ते समय जितने विशुद्धि-स्थानों पर चढ़ता है, गिरते समय उतने ही संक्लेश-स्थानों पर उतरता है। इस दृष्टि से जितने संक्लेश स्थान हैं, उतने ही विशुद्धि के स्थान हैं। बल्कि क्षपकश्रेणी की दृष्टि से विचार करते हैं तो विशुद्धि के स्थान संक्लेश-स्थानों से अधिक हैं; क्योंकि क्षपकश्रेणी पर आरोहण करने के बाद जीव जिन विशुद्धि स्थानों पर चढ़ता है, उन पर से फिर नीचे नहीं उतरता। यदि उन विशुद्धि स्थानों के बराबर संक्लेश स्थान भी होते तो उपशमश्रेणी के समान क्षपक श्रेणी में भी जीव का पतन अवश्य होता; किन्तु ऐसा होता नहीं है। फलितार्थ यह है कि क्षपक श्रेणी में विशुद्धि के स्थानों की संख्या अधिक हैं, संक्लेशस्थानों की संख्या विशुद्धि स्थानों की अपेक्षा कम। इसलिए क्षपक श्रेणी पर चढ़ने के बाद जीव नीचे नहीं उतरता। क्षपक श्रेणी में विशुद्धिस्थान ही होते हैं, इसलिए शुभप्रकृतियों का रसबन्ध केवल चतुःस्थानिक ही होता है। तथा अत्यन्त संक्लेशस्थानों के रहने पर शुभप्रकृतियों का बन्ध ही नहीं होता। यद्यपि अत्यन्त संक्लेश के समय भी कोई-कोई जीव नरकगति के योग्य वैक्रिय शरीर आदि शुभ प्रकृतियों का बन्ध करते हैं; किन्तु उस समय भी उनके भव-स्वभाव के कारण विस्थानिक ही रसबन्ध होता है; तथा जिन मध्यम परिणामों से शुभ प्रकृतियों का बन्ध होता है, उनसे भी उनका द्विस्थानिक ही रस-बन्ध होता है। अतएव शुभ प्रकृतियों में कहीं भी एक-स्थानिक रसबन्ध नहीं होता।
कषायों की तीव्रता-मन्दता से अशुभ-शुभप्रकृतियों के अनुभागबन्ध ___ उक्त चारों स्थान अशुभ-प्रकृतियों में कषायों की तीव्रता बढ़ने से और शुभ प्रकृतियों में कषायों की मन्दता बढ़ने से होते हैं। कषायों की तीव्रता बढ़ने से अशुभ प्रकृतियों में एक-स्थानिक से लेकर चतुःस्थानिक पर्यन्त रस पाया जाता है और कषायों की मन्दता के बढ़ने से शुभ प्रकृतियों में विस्थानिक से लेकर चतुःस्थानिक पर्यन्त रस पाया जाता है, क्योंकि शुभ प्रकृतियों में एकस्थानिक रसबन्ध नहीं होता। " विशुद्ध-संक्लिष्ट परिणामों से शुभाशुभ प्रकृतियों के अनुभागबन्ध में अंतर ___. “पंचसंग्रह' में बताया गया है कि शुभप्रकृतियों का अनुभागबन्ध विशुद्ध परिणामों से तीव्र अर्थात्-उत्कृष्ट होता है, तथा अशुभ-प्रकृतियों का अनुभाग-बन्ध संक्लेश परिणामों से उत्कृष्ट होता है। इसके विपरीत, यानी शुभ प्रकृतियों का संक्लेश (परिणामों) से और अशुभ-प्रकृतियों का विशुद्धि (परिणामों) से जघन्य अनुभाग-बन्ध होता है। जो ४२ प्रशस्त प्रकृतियाँ हैं, उनका उत्कृष्ट अनुभागबन्ध विशुद्धि गुण की १. (क) कर्मग्रन्थ भा. ५ विवेचन (पं. कैलाशचन्द्रजी) से
(ख) कर्मग्रन्थ भा. ५ विवेचन से (मरुधरकेसरी)
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