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रसबन्ध बनाम अनुभागबन्ध : स्वरूप और परिणाम ४४९ पांच कारण बताए हैं, परन्तु उन सबमें मुख्य कारण कषाय ही है। जो रसबन्ध का मुख्य कारण है।
स्वाभाविक रस और कषाय-परिणत रस में अन्तर यद्यपि कार्मणवर्गणा के पुद्गलों में स्वाभाविक रस है, परन्तु वह बहुत अल्प है, वह जीव पर अनुग्रह या उपघात करने में असमर्थ है, परन्तु कषाय से परिणत हुआ प्राणी प्रत्येक कर्माणु में अनन्तगुना रस उत्पन्न करता है, और वही जीव पर अनुग्रह या उपघात करमें में समर्थ है।
रसबन्ध का लक्षण इसलिए रसबन्ध का लक्षण किया गया है-ग्रहण या आकर्षित किये जाते हुए कर्मपुद्गलों में ज्ञानादि. गुणों को रोकने के उस-उस स्वभाव के अनुसार जीव पर अनुग्रह या उपघात करने का सामर्थ्य निश्चित होता है, वह रसबन्ध है। अर्थात्-बन्ध को प्राप्त कर्मपुद्गलों में फल देने की शक्ति का जिससे निश्चय होता है, उसे रसबन्ध कहते हैं।
अनुभागबन्धु का स्वरूप तत्त्वार्थसूत्र में अनुभागबन्ध का लक्षण इस प्रकार है-विपाक अर्थात्-विविध प्रकार के पार्क यानी फल देने की शक्ति का पड़ना ही अनुभाव-अनुभाग है। वह जिस कर्म का जैसा नाम है, उसके अनुरूप होता है। 'सर्वार्थसिद्धि' में कहा गया है-उस-उस कर्म के रस-विशेष को अनुभव (अनुभाग) कहते हैं। तथा कर्मपुद्गलों के पृथक्-पृथक् स्वगत-सामर्थ्य-विशेष को भी अनुभाग कहते हैं।२ 'कषाय पाहुड' में कहा गया है-कर्मों के अपने-अपने कार्य करने (फल देने) की शक्ति को अनुभाग कहते हैं। नियमसार के अनुसार-शुभाशुभ कर्म की निर्जरा के समय सुख-दुःखरूप फल देने की शक्ति वाला बन्ध अनुभागबन्ध है। मूलाचार में कहा है-ज्ञानावरणीयादि कर्मों का जो कषायादि-परिणामजनित शुभ अथवा अशुभ रस है, वह अनुभागबन्ध है।३
१. (क) रसबंधो (पीठिका) से भावग्रहण, पृ. २२
(ख) महाबंधो भा. ६ (अनुभागबन्धप्ररूपणा) से, पृ. १५ २. (क) विपाकोऽनुभावः, स यथानाम ।
-तत्त्वार्य ८/२१, २२ (ख) तद्रस-विशेषोऽनुभवः ।।
-सर्वार्थसिद्धि ८/३/३७९ (ग) कम्माण रुग-कज्ज-करण-सत्ती अणुभागो नाम । -कषायप्राभृत ५/४/२३/१ ३. (क) शुभाशुभ-कर्मणां निर्जरा-समये सुख-दुःख-फलदान-शक्ति युक्तो ह्यनुभागबन्धः ।
-नियमसार ता. वृ. ४० (ख) कम्माणं जोदु रसो अज्झवसाण-जणिदो सुह असुहो वा बंधो सो अणुभागो... |
-मूलाचार १२४०
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