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रसबन्ध बनाम अनुभागबन्ध : स्वरूप और परिणाम ४४७ होती है या हुई है ? इस प्रकार की विशेषता रस ( अनुभाग ) बन्ध से ही प्राप्त होती है, प्रकृतिबन्ध से नहीं । जीव कर्मों के ग्रहण या आकर्षण करने के उत्तरकाल में या प्रदेशबन्ध या प्रकृतिबन्ध के उत्तरकाल में स्वकृतकर्मों का फल शुभरूप में भोगेगा या अशुभरूप में, अर्थात्-उदयकाल में जीव जो शुभाशुभ कर्मों का फल भोगेगा, उसमें मुख्य फलदानशक्ति का मुख्य नियामक कारण अनुभाग (रस) बन्ध ही है । और अनुभाग (रस) बन्ध का मुख्य कारण कषाय हैं।' अनुभाग का अर्थ ही है- फलदानशक्ति ।
स्थितिबन्ध और अनुभागबन्ध का कार्य और दोनों में अन्तर
यद्यपि कर्मबन्ध के मिथ्यात्व आदि सर्व कारणों में कषाय प्रमुख कारण है। कषाय से स्थिति ( कालमर्यादा) और रस दोनों का निर्माण होता है। विशिष्ट कर्मबन्ध में स्थितिबन्ध और रसबन्ध की मुख्यता कही जा सकती है। इस अपेक्षा से साधारणतया जीव में कषाय-परिणति और कार्मणवर्गणा के स्पर्श-गुण के कारण विशिष्ट बन्ध को हम दो भागों में विभक्त कर सकते हैं-स्थिति-बन्ध और अनुभाग (रस) बन्ध । परन्तु स्थितिबन्ध में विवक्षित (किसी नियत ) कर्म का सम्बन्ध जीव के साथ कितने काल तक रहता है, इसका विचार किया जाता है, जबकि रस ( अनुभाग ) बन्ध में विपाक (फलभोग) के समय वह कर्म जीव को कितनी मात्रा में अर्थात्- कितने तीव्ररूप में या मन्दरूप में फल देता है, तथा उसका जीव के ज्ञानादि गुणों पर कैसा असर होता है; अथवा जीव के साथ जिस कर्म का बन्ध होता है, वह विघटन ( फल भोगने) के समय जीव में कितनी मात्रा में और किस प्रकार की ( सुखद-दु:खद ) क्रिया के (अनुभव-वेदन) होने में सहायक होता है; इसका विचार किया जाता है। इस तथ्य को स्पष्ट करने के लिए टाइम बम (Time bomb) का उदाहरण उपयुक्त होगा। टाइम बम में दो बातें मुख्यतया देखी जाती हैं - ( १ ) नियत समय (अमुक काल ) में उसका विस्फोटन होगा और (२) विस्फोट के समय अमुक मात्रा में आन्दोलन ( हलचल ) उत्पन्न करना। अर्थात्-उसकी संहारक शक्ति कितनी हैं ? इसे दृष्टिगोचर करना। ठीक ये दोनों बातें कर्मों के पूर्वोक्त दोनों प्रकार के बन्धों पर घटित होती हैं। स्थितिबन्ध बताता है कि कर्म कितने काल के पश्चात् - अमुक नियत समय पर आत्मा से अलग होगा, और जिस समय कर्म आत्मा से अलग होगा, उस समय किस विशिष्ट प्रकार की नियतमात्रा में हलचल (कम्पन) उत्पन्न करके आत्मा से अलग होगा, यह कार्य अनुभाग (रस) बन्ध करता है। शास्त्रकारों ने इस प्रकार की हलचल को 'उदय' या 'उदीरणा' शब्द से प्रतिपादित किया है- कर्मों का उदय या उदीरणा अनुभाग (रस)
१. ( क ) महाबंधी भा. ६ की प्रस्तावना से, पृ. १५
(ख) रसबंधी (विषय-परिचय) से पृ. २२
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