Book Title: Karm Vignan Part 04
Author(s): Devendramuni
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay

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Page 494
________________ ४४६ कर्म-विज्ञान : भाग ४ : कर्मबन्ध की सार्वभौम व्याख्या (७) और पुदगल (कर्मादि) का सम्बन्ध अनादिकाल से हो रहा है। इस बन्ध का मख्य कारण जीव की अपनी कमजोरी है। कर्म के निमित्त से जीव में योग और कषायरूप परिणमन होता है, इस कारण जीव के साथ कर्म बन्ध को प्राप्त होता है। यद्यपि जीव (शुद्ध आत्मा) में स्पर्श गुण नहीं है, फिर भी जीव में विद्यमान कषायरूप परिणाम स्पर्शगुण का ही कार्य करता है। जिस प्रकार पुद्गल में स्पर्शगुण के कारण उसका अन्य पुद्गल द्रव्य के साथ बन्ध होता है, उसी प्रकार जीव में योग और कषायरूप परिणाम (स्पर्शगुणवत्कार्यकारी) होने के कारण उसका कर्म और नोकर्म के साथ बन्ध होता है। किन्तु जीव का यह योग और कषायरूप परिणाम स्वाभाविक नहीं, नैमित्तिक है। जब तक इस प्रकार के निमित्त (कषायादि विभावों) का सद्भाव रहता है, तभी तक यह बन्ध-प्रक्रिया चलती है, इसके अभाव में (ग्यारहवें से चौदहवें गुणस्थान में कषाय का सद्भाव न होने से) (अनुभाग) बन्ध-प्रक्रिया नहीं चलती। निष्कर्ष यह है. कि जीव का कषायरूप परिणाम और कर्मपुद्गल का स्पर्शगुण मुख्यतया बन्ध का प्रयोजक है। इन्हीं दोनों के आधार से अनुभागबन्ध या रसबन्ध का विचार किया गया है और रसबन्ध या अनुभागबन्ध का अस्तित्व इसी से सिद्ध होता है। तात्पर्य यह है कि जीव में जिस मात्रा में कषायाध्यवसाय-स्थान होता है, उसी मात्रा में जीव के साथ अनुभाग (रस) बन्ध होता है।' केवल प्रकृति-प्रदेशबन्ध से काम नहीं चलता __योग के निमित्त से गुणस्थानों के अनुसार यथासम्भव ज्ञानावरणीयादि मूल प्रकृतियाँ तथा उनकी उत्तरप्रकृतियों का प्रदेशबन्ध और प्रकृतिबन्ध होता है, किन्तु स्थितिबन्ध और अनुभागबन्ध जीव के कषाय और कर्मवर्गणाओं के स्पर्श से होते हैं। प्रकृति और प्रदेश से सामान्य बन्ध होता है, जिसमें स्थिति और रस नहीं बनता। कषाय युक्त अध्यवसाय के कारण ही न्यूनाधिक (फलदान) शक्ति का निर्माण होता है। इसी न्यूनाधिक (फलदान) शक्ति को रसबन्ध या अनुभागबन्ध कहा जाता है। मुख्य फलदानशक्ति का नियामक अनुभागबन्ध है, प्रकृतिबन्ध नहीं यद्यपि प्रत्येक कर्म में उसकी प्रकृति के अनुसार अनुभागशक्ति पड़ती है। इस कारण हम प्रकृतिबन्ध को सामान्य अनुभाग और रसबन्ध को विशेष अनुभाग कह सकते हैं। यद्यपि ज्ञानावरणीय आदि कर्मों के मतिज्ञानावरणीय आदि विशेष ही हैं, फिर भी अपनी-अपनी फलदान-शक्ति के तारतम्य की अपेक्षा से वे सामान्य ही हैं। अर्थात्-प्रकृतिबन्ध में ज्ञानादि को आवृत करने की सामान्य शक्ति होती है, किन्तु यह शक्ति कहाँ, किस कर्म में, किस प्रकार के तीव्र-मन्दादि रस के कारण कितनी प्राप्त १. महाबंधो भा. ६ की प्रस्तावना से, पृ. १५ २. (क) वही, भावांशग्रहण, (ख) रसबंधो (विषय परिचय) से, पृ. २२ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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