Book Title: Karm Vignan Part 04
Author(s): Devendramuni
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay

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Page 449
________________ घाती और अघाती कर्म-प्रकृतियों का बन्ध ४०१ होते हैं, इसीलिए वे घातिया (घात्य) या घाती कर्म कहलाते हैं।' अर्थात्-भावविकार की निमित्तभूता प्रकृतियाँ घातिया हैं। क्योंकि उनका कार्य आत्मा के स्व-भावों को आच्छादित या विकृत करना है। आठ कमों की विविध प्रकृतियाँ कर्म की मूल प्रकृतियाँ आठ हैं-ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, वेदनीय, मोहनीय, आयु, नाम, गोत्र और अन्तराय। वे आठ कर्मों की प्रकृतियाँ दो प्रकार की हैं-घातिक और अघातिक। ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय और अन्तराय ये चार घातिकर्म प्रकृतियाँ हैं। शेष चार अघाती कर्मप्रकृतियाँ हैं। इन चार कर्मों को अधातिया इसलिए कहा जाता है, क्योंकि उनमें जीव (आत्मा) के मूल गुणों का विनाश करने की शक्ति नहीं पाई जाती। आत्मा के चार मुख्य निजीगुणों की घातक चार घातीकर्म-प्रकृतियाँ - आत्मा के अन्तरंग स्व-भाव या निजी मूलगुण चार हैं-अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन, अनन्त अव्याबाध सुख (आत्मिक आनन्द) और अनन्त आत्मिक शक्ति (वीर्य)। घाती कर्मप्रकृतियाँ आत्मा के इन चार अन्तरंग स्व-भावों-मुख्य गुणों को आच्छादित या विकृत करती हैं। इसके अतिरिक्त वे आत्मा के अनुजीवी गुणों-क्षमा, मार्दव, आर्जव, शौच, सत्य, संयम, तप, त्याग, आकिंचन्य, ब्रह्मचर्य आदि स्व-भावों (आत्म-धर्मों) का विकास भी अवरुद्ध कर देती हैं। : पूर्वोक्त चार आत्म-स्व-भावों को आच्छादित या विकृत करने के कारण घाती कर्म-प्रकृतियाँ उनके अनुरूप चार हैं-ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय और अन्तराय।२ ... आत्मा के चार स्व-गुणों का ये चार घाती कर्म कैसे घात करते हैं ? आत्मा के पूर्वोक्त चार निजी गुणों का स्वरूप संक्षेप में इस प्रकार है-ज्ञाता, ज्ञान और ज्ञेय के विकल्प से विशेष आकार-प्रकारों को जानना ज्ञान है। अन्तरंग के सामान्य प्रतिभास मात्र को या अन्तर् के चिप्रकाश को 'दर्शन' कहते हैं। निर्विकल्प १. (क) केवलनाण-दसण-सम्मत्त-चारित्त-विरियाणमणेय-मेय-मिण्णाणं जीव-गुणाणं विरोहित्तणेण तेसि घादि-वयदेसादो। . -धवला ७/२/१/१५ (ख) ताः पुनः कर्म-प्रकृतयो द्विविधाः -घातिका अघातिकाश्च। तत्र ज्ञान-दर्शनावरण-मोहान्तरायाख्या घातिकाः । इतरा अघातिकाः। तत्त्वार्थ-राजवार्तिक ८/२३/७/५८४ .. (ग) सेसकम्मणं घादि-ववदेसो किण्ण होदि ? ण, तेसिं जीव-गुण-विणासण-सत्तीए अभावा। -धवला; पंचाध्यायी उ. ९९९ २. धर्म और दर्शन (आचार्य देवेन्द्रमुनि) से, पृ. ६४ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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